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________________ ६१४ सूत्रकृताग सूत्र साथ ही धर्मोपदेशक को पूर्वोक्त बातों की सावधानी रखकर ही अपना उपदेश शुरू करना चाहिए, अन्यथा लेने के बदले देने पड़ सकते हैं। शास्त्रकार ने निम्नोक्त ६ बातों की सावधानी की ओर धर्मोपदेशक का ध्यान खींचा है (१) तर्कयुक्त बुद्धि द्वारा श्रोताओं के मनोभावों को पहले जान ले, (२) अनुमान से दूसरों का अभिप्राय जानकर धर्मोपदेश शुरू करे, (३) वह श्रोताओं के कर्मों (कारनामों, लबुकर्मी या गुरुकर्मी अथवा उनके कार्यों) तथा अभिप्रायों को भलीभाँति जान ले, (४) वह पहले श्रोताओं को ऐसा उपदेश दे, जिससे कि उनका मिथ्यात्व सर्वथा दूर हो, (५) सुन्दरियों के रूप में आसक्त होना, अपने भयंकर विनाश को न्यौता देना है इस बात को श्रोताओं के दिमाग में ठसाकर उनकी रूपादि विषयों के प्रति आसक्ति हटाए, (६) जिससे बसस्थावर जीवों का कल्याण हो, ऐसा धर्मोपदेश दे, (७) पूजा, सत्कार, प्रतिष्ठा, प्रशंसा एवं नामना-कामना आदि प्राप्त करने की दृष्टि से धर्मोपदेश न दे । (८) कोई सुने या न सुने, आचरण करे या न करे धर्मोपदेशक साधु को किसी पर राग-द्वप रख कर किसी का भला-बुरा या प्रिय-अप्रिय नहीं करना चाहिए, (६) समस्त अनर्थों को छोड़कर साधु शान्त, अनाकुल एवं कषायरहित होकर धर्मोपदेश करे । ___कभी-कभी ऐसा होता है कि मिथ्या दृष्टियों की अन्तःकरणवृत्ति दुष्ट होती है । मान लो, धर्मोपदेशक ने कुतीथिकों साधु-द्वेषियों को जाने-समझे बिना उनकी गलत मान्यताओं का जोर से खण्डन कर दिया, इस पर वह कुतीथिक तिलमिला उठेगा, उसके मन में उसकी भयंकर प्रतिक्रिया जागेगी, अश्रद्धावश वह उस साधु के प्रति क्रुद्ध होकर साधु पर प्रहार आदि अनिष्ट कर सकता है। जैसे पालक पुरोहित ने स्कन्दकाचार्य का अनिष्ट किया था। अतः धर्मोपदेशक को बहुत सोच-समझकर पुरुष-विशेष को जानकर धर्मोपदेश करना चाहिए। उसे यह देखना चाहिए कि कौन किस मत पंथ का अनुयायी है ? किसे देव या गुरु मानता है ? यह मताग्रही है या सरल है ? बिना देखे-समझे उपदेश देने का क्या नतीजा आने की सम्भावना है ? इस सम्बन्ध में पहले बताया जा चुका है। वस्त्र-पात्र आदि के लाभरूप पूजा की इच्छा तथा प्रशंसा की कामना तप, संयम, ज्ञान आदि में तो बाधक है ही, धर्मोपदेश करने में भी बाधक है। साधु इनसे निरपेक्ष रहे। सभी प्रकार के अनर्थों (जो कि याथातथ्य के विपरीत हैं) से साधक दूर रहे। श्रोता को प्रिय लगने वाली राजकथा, स्त्रीकथा, विकथा, छलितकथा अथवा सावध प्रवृत्तिप्रेरक कथा है, तथा अप्रियकथा है—उस सम्प्रदाय, देव, गुरु की निन्दा। इन दोनों प्रकार की प्रिय-अप्रिय कथाओं से साधु दूर रहे। और सब बातें स्पष्ट हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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