SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 958
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ याथातथ्य : तेरहवाँ अध्ययन व्याख्या साधु धर्मोपदेश देने से पहले और पीछे क्या सोचे ? १६वीं गाथा से लेकर २२वीं गाथा तक शास्त्रकार ने बताया है कि धर्मोपदेश देने वाले की योग्यता तथा धर्मोपदेश देने से पहले क्या-क्या सावधानी रखनी चाहिए ? धर्मोपदेश किस प्रयोजन से देना चाहिए, किस प्रयोजन से नहीं ? वास्तव में धर्मोपदेशक का काम बहुत बड़ी जिम्मेवारी का है, अगर धर्मोपदेशक जनता को शास्त्र- सिद्धान्त विपरीत, अहितकर, कामोत्तेजक, क्रोधोत्तेजक, या अभिमानवर्द्धक अथवा सावद्य प्रवृत्तिप्रेरक उपदेश दे बैठता है तो उसका नतीजा बहुत बुरा आता है । श्रोताओं में कई बार धर्मोपदेशक के द्वारा उत्तेजना फैला दी जाती है अथवा उसके उपदेश से क्रोध का उफान श्रोताओं में आ जाता है, वे आपस में लड़ने- भिड़ने और तू-तू-मैं-मैं करने पर उतारू हो जाते हैं, कई दफा अगर उपदेशक श्रोताओं के चेहरों पर से या उनकी चेष्टाओं पर से उनके मनोभावों को नहीं पढ़ता है, और ऊटपटाँग बोल देता है, तो अश्रद्धालु व्यक्ति के मन में उसकी भयंकर प्रतिक्रिया होती है, वह वक्ता पर सहसा हमला भी कर बैठता है, कई बार उसकी जान लेने पर उतारू हो जाता है । १३ इसलिए धर्मोपदेशक का उत्तरदायित्व है कि वह जिस धर्म का उपदेश जनता को देना चाहता है, वह उपदेश उस देश-काल के अनुकूल है या नहीं ? उस उपदेश को पचाने या जीवन में उतारने की उपस्थित श्रोताओं में पात्रता या शक्ति है या नहीं ? इन सब बातों पर भलीभांति विचार करके वह जनता अथवा प्राणियों के लिए कल्याणकर श्रुतचारित्ररूप धर्म का उपदेश दे । धर्मोपदेशक को दूसरे के उपदेश के बिना ही स्वयं समझकर अर्थात् संसार चार गति वाला है, मिथ्यात्व अविरति, प्रमाद, कपाय और योग, ये पाँच कर्म-बन्ध के और परम्परा से संसार के कारण हैं, मोक्ष समस्त कर्मक्षयरूप है, सम्यग्दर्शन - ज्ञान चारित्र ये रत्नत्रय मोक्ष के कारण हैं ---ये और ऐसी बातों को अपने आप जानकर या अन्य आचार्य आदि से सुनकर साधु भव्य जीवों को श्रुतचारित्ररूप धर्म का उपदेश दे । धर्मोपदेशक को दूसरों को उपदेश देने से पहले स्वयं अपने जीवन में जो निन्दित, गर्हित, सावद्य और दोपयुक्त बातें हो, उन्हें निकाल देना चाहिए। जैसे मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कपाय और योग, तथा हिंसा, झूठ, चोरी, आदि पाप तथा कुव्यसन आदि बातें निन्द्य हैं । इन निन्दनीय बातों का त्याग तथा धर्मकथा आदि प्रवृत्तियाँ, निदान यानी पूजा, सत्कार प्रतिष्ठा या अन्य सांसारिक वस्तुओं को प्राप्ति की आशा से नहीं करनी चाहिए। इन निन्द्य या अकरणीय बातों का त्याग करने पर ही श्रोताओं पर उसके धर्मोपदेश का प्रभाव पड़ सकता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy