SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 957
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६१२ सूत्रकृतांग सूत्र श्रोताओं के मिथ्यात्व आदि को सर्वथा या सब तरह से दूर करे। (भयावहेहि रूवेहि लुप्पंति) तथा उन्हें यह समझाए कि सुन्दरियों आदि के रूप अत्यन्त भयावह (खतरनाक) हैं, इनके निमित्त से रूप में लुब्ध जीव नष्ट हो जाते हैं । (विज्ज गहाय तसथावरेहि) इस प्रकार विद्वान् पुरुष श्रोताओं (दूसरों) का अभिप्राय जानकर त्रसस्थावर जीवों का जिससे कल्याण हो, ऐसा धर्मोपदेश दे ॥२१॥ (न पूयणं चेव सिलोयकामी) साधु धर्मोपदेश से अपनी पूजा और स्तुति की वांछा न करे, (पियमप्पियं कस्सइ णो करेज्जा) कोई सुने, न सुने या उपदेश पर अमल करे, न करे वह किसी के प्रति राग (प्रिय) या अप्रिय (द्वप) न करे, या भला-बुरा न करे । (सव्वे अणठे परिवज्जयंते) साधु इन समस्त अनर्थों (अहितकर बातों को छोड़ता हुआ, (अणाउले अकसायी भिक्खु ) आकुलतारहित एवं कषायरहित होकर धर्मोपदेश दे ॥२२॥ भावार्थ अपनी बुद्धि से स्वयं धर्म को जानकर अथवा दूसरे से सुनकर जनता के हित के लिए धर्म का उपदेश दे, तथा जो कार्य निन्दित हैं, अथवा जो कार्य सांसारिक फल भोगों की इच्छा से किये जाते हैं, सुधीर पुरुषों के धर्म से युक्त साधक उनका सेवन नहीं करते ।।१६।। ___अपनी तर्क-वितर्कयुक्त बुद्धि से दूसरों का अभिप्राय न समझकर उपदेश देने से कदाचित् वे उस उपदेश पर अश्रद्धा उत्पन्न करके क्षद्रता (क्रोधावेश) पर उतर आते हैं, तथा उपदेश देने वाले की दीर्घकालिक आयु को चोट पहुँचाकर खत्म भी कर सकते हैं। इसलिए साधु अनुमान से दूसरों का अभिप्राय जानकर ही धर्मोपदेश दे ।।२०।। धीरपुरुष श्रोताओं के कर्म (कार्य) और अभिप्राय जानकर ही धर्म का उपदेश दे। तथा उपदेश के द्वारा सुनने वालों के मिथ्यात्व आदि को सब तरह से दूर करे। उन्हें समझाए कि सुन्दरिया आदि का रूप भयानक (खतरनाक) है, उसमें लब्ध जीव अपने प्राणों से हाथ धो बैठते हैं। इस प्रकार विद्वान् पुरुष धर्मसभा में उपस्थित लोगों का अभिप्राय जानकर त्रसस्थावरों के लिए हितकर उपदेश दे ।।२१।। साधु धर्मोपदेश के द्वारा अपनी पूजा (सत्कार) और स्तुति (प्रशंसा) की कामना न करे, तथा उपदेश सुनने, । सुनने या उपदेश पर अमल करने, न करने वाले से खुश या नाराज न होकर किसी का भला बुरा न करे, या किसी पर राग-द्वेष न करे । पूर्वोक्त सभी अनर्थों (अनिष्टों) को तिलांजलि देकर साधु आकुलता एवं कषाय से रहित होकर धर्मोपदेश दे ।।२२।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy