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समय : प्रथम अध्ययन-प्रथम उद्देशक
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शय्या पर पड़ा हुआ है, सम्पूर्ण परिवार उसकी परिचर्या में जुटा हुआ है, वैद्योंहकीमों की कतार लगी हुई है, मंत्रयंत्रवादी भी अपना आसन जमाए जप कर रहे हैं, विपुल धन-सम्पत्ति में यह व्यक्ति समृद्ध है, नौकर-चाकरों की भी घर में कमी नहीं है, किन्तु जब मृत्यु आती है या रोगजनित पीड़ा होती है, अथवा अन्य शारीरिक, मानसिक कष्ट होता है, तब वह टुकुर-टुकुर देखता रह जाता है, कोई उसे पीड़ा या मौत से बचा नहीं सकता। इसीलिये तो नीतिकार कहते हैं
धनानि भूमौ पशवश्च गोष्ठे, दारा गृहे बन्धुजनाः श्मशाने ।
देहश्चितायां परलोकमार्ग, धर्मानुगो गच्छति जीव एकः ।।
धन खजाने में या भूमिगृह में पड़ा रहता है, पशु बाड़े में बँधे रह जाते हैं, पत्नी घर में रह जाती है, बन्धुजन उसके शव के साथ श्मशान तक जाते हैं, देह भी चिता तक साथ रहता है, परलोक के पथ में तो इन सबको छोड़कर जीव अकेला ही जाता है, केवल उसका किया हुआ धर्माचरण अवश्य साथ में जाता है।
जिनके पास बड़ी भारी सेना थी, हाथी-घोड़े थे, भरा-पूरा परिवार था, असंख्य नौकर-चाकर थे, धन-दौलत का अम्बार लगा हुआ था, उनके साथ भी मृत्यु के समय कोई नहीं गया। कितनी असहायता, पराधीनता एवं अशरणता है, प्राणी की ? इसीलिये शास्त्रकार कहते हैं कि कर्मबन्धन से मुक्त होना हो तो इन सबके प्रति ममत्वभाव का एकदम परित्याग कर दो। मन से कतई निकाल दो कि 'ये मेरे हैं, मैं इनका हुँ।'
इस अध्ययन का नाम स्वसमय-परसमय-वक्तव्यता है। इसके अनुसार शास्त्रकार ने स्वसिद्धान्त (जैन सिद्धान्त) की दृष्टि से बन्धन और उनके कारणों का स्वरूप एवं उनसे विरत होने का उपाय बतला दिया, साथ ही मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग, बन्धन के इन पाँच मुख्य कारणों में से अविरतिरूप कारण के सम्बन्ध में अपना मन्तव्य प्रकट कर दिया। अब परसमय के वक्तव्य के सन्दर्भ में शास्त्रकार दो बातें मुख्य रूप से सूचित करते हैं -... "एक तो, दूसरे मत वादियों या दार्शनिकों की बन्धन-विषयक मान्यता तथा आत्मा के स्वरूपबोध के
१. न सा महं, नो वि अहं पि तीसे, इच्चेव ताओ विणएज्ज राग----जिस किसी भी
स्त्री, पुत्र, माता, पिता तथा सांसारिक सुख-सामग्री पर तुम्हारा मोह है, उसके विषय में यह सोचो कि वह मेरी नहीं है और न ही मैं उसका हूँ। आत्मत्राता इस प्रकार मन में प्रविष्ट राग या मोह को निकाल फेंके ।
-दशवैकालिक, अ० २
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