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सूत्रकृतांग सूत्र
सम्बन्ध में उनका मतव्य क्या है ? दूसरे पूर्वाग्रह या मिथ्याभिनिवेश रूप मिथ्यात्व भी कर्मबन्ध का एक प्रबल कारण है, यह उन उन मतवादियों में किस-किस रूप में पाया जाता है ?"
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प्रकारान्तर से सत्यग्राही स्वसिद्धान्त तत्पर साधकों को इस मिथ्यादर्शन से बचने या अपने आप की रक्षा करने की बात भी परोक्ष रूप से सूचित कर दी है । देखिये शास्त्रकार की उनके संबन्ध में निष्पक्ष प्रतिपादनरूप गाथा
मूल पाठ
एए थे विउक्कम्म, एगे समण माहणा । अयाणंता विउस्सित्ता, सत्ता कामेहि माणवा || ६ ||
संस्कृत छाया
एतान् ग्रन्थान् व्युत्क्रम्य, एके श्रमण-ब्राह्मणाः । अजानन्तो व्युत्सिताः, सक्ताः कामेषु मानवाः ॥ ६ ॥
अन्वयार्थ
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(एए थे) इन पूर्वोक्त ग्रन्थों को (बिउवकम्म) छोड़कर (विउस्सित्ता) स्वकल्पित ग्रन्थों या सिद्धान्तों में अभिनिवेशपूर्वक विविध प्रकार से बद्ध ( एगे समणमाहणा) कई बौद्ध आदि श्रमण और बृहस्पति मतानुयायी ब्राह्मण ( अयातो (मावा) जो सत्य सिद्धान्त के परमार्थ - वास्तविक तत्त्व से अनभिज्ञ मानव हैं, ( कामेहि) इच्छारूप और मदनरूप काम भोगों में आसक्त रहते हैं ।
भावार्थ
इन पूर्वोक्त ग्रन्थों या सिद्धान्तों का परित्याग करके कई शाक्य आदि श्रमण एवं बार्हस्पत्य मतानुयायी ब्राह्मण स्वरचित सिद्धान्तों में अभिनिवेशपूर्वक बद्ध है । सत्य सिद्धान्तों के रहस्य से अनभिज्ञ वे मानव विविध कामभोगों में आसक्त हैं ।
व्याख्या
परसमय : मिथ्यात्व के कारण क्यों और कैसे ?
इस गाथा में दूसरे मतानुयायियों के सिद्धान्त शास्त्रकार ने प्रकारान्तर से मिथ्यात्व से ओत-प्रोत बनाये हैं । इसे सिद्ध करने के लिये हमें जैन सिद्धान्तों की गहराई में उतरना पड़ेगा । जैन सिद्धान्त के अनुसार मिथ्यात्व का लक्षण है - जो
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