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________________ सूत्रकृतांग सूत्र सम्बन्ध में उनका मतव्य क्या है ? दूसरे पूर्वाग्रह या मिथ्याभिनिवेश रूप मिथ्यात्व भी कर्मबन्ध का एक प्रबल कारण है, यह उन उन मतवादियों में किस-किस रूप में पाया जाता है ?" ५२ प्रकारान्तर से सत्यग्राही स्वसिद्धान्त तत्पर साधकों को इस मिथ्यादर्शन से बचने या अपने आप की रक्षा करने की बात भी परोक्ष रूप से सूचित कर दी है । देखिये शास्त्रकार की उनके संबन्ध में निष्पक्ष प्रतिपादनरूप गाथा मूल पाठ एए थे विउक्कम्म, एगे समण माहणा । अयाणंता विउस्सित्ता, सत्ता कामेहि माणवा || ६ || संस्कृत छाया एतान् ग्रन्थान् व्युत्क्रम्य, एके श्रमण-ब्राह्मणाः । अजानन्तो व्युत्सिताः, सक्ताः कामेषु मानवाः ॥ ६ ॥ अन्वयार्थ - (एए थे) इन पूर्वोक्त ग्रन्थों को (बिउवकम्म) छोड़कर (विउस्सित्ता) स्वकल्पित ग्रन्थों या सिद्धान्तों में अभिनिवेशपूर्वक विविध प्रकार से बद्ध ( एगे समणमाहणा) कई बौद्ध आदि श्रमण और बृहस्पति मतानुयायी ब्राह्मण ( अयातो (मावा) जो सत्य सिद्धान्त के परमार्थ - वास्तविक तत्त्व से अनभिज्ञ मानव हैं, ( कामेहि) इच्छारूप और मदनरूप काम भोगों में आसक्त रहते हैं । भावार्थ इन पूर्वोक्त ग्रन्थों या सिद्धान्तों का परित्याग करके कई शाक्य आदि श्रमण एवं बार्हस्पत्य मतानुयायी ब्राह्मण स्वरचित सिद्धान्तों में अभिनिवेशपूर्वक बद्ध है । सत्य सिद्धान्तों के रहस्य से अनभिज्ञ वे मानव विविध कामभोगों में आसक्त हैं । व्याख्या परसमय : मिथ्यात्व के कारण क्यों और कैसे ? इस गाथा में दूसरे मतानुयायियों के सिद्धान्त शास्त्रकार ने प्रकारान्तर से मिथ्यात्व से ओत-प्रोत बनाये हैं । इसे सिद्ध करने के लिये हमें जैन सिद्धान्तों की गहराई में उतरना पड़ेगा । जैन सिद्धान्त के अनुसार मिथ्यात्व का लक्षण है - जो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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