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सूत्रकृतांग सूत्र संसार भर के परिग्रह के प्रतीक हैं। इसलिये इस गाथा के दूसरे चरण में कहा है-'सव्वमेयं न ताणइ'–अर्थात ये सब रक्षा करने में समर्थ नहीं हैं। आशय यह है कि 'सव्व' शब्द से यहाँ शास्त्रकार ने पूर्वगाथाओं में वर्णित सभी ममत्व के कारणभूत पदार्थों एवं सम्बन्धी जनों का स्मरण कर दिया है। 'न ताणइ' (बाम-रक्षण करने में समर्थ नहीं हैं) कहकर शास्त्रकार ने शास्त्र-पाठक पर छोड़ दिया है कि वह प्रसंगानुसार पूर्वोक्त गाथाओं से इन प्रश्नों का उत्तर ढूँढ लें-ये सब किसकी रक्षा नहीं कर सकते ? तथा ये सब किससे रक्षा करने में समर्थ नहीं है ? प्रथम प्रश्न का उत्तर तो इससे पूर्व की गाथा के आशयानुसार यह है कि 'जो यह मान बैठा है कि माता-पिता, भाई-बहन आदि या ये धन-सम्पत्ति, जमीन-जायदाद आदि मेरी रक्षा करेंगे, 'मैं इनका हूँ' 'ये मेरे हैं' फिर समय पर ये मुझे किसी न किसी तरह बचा लेंगे । मेरे प्राणों की रक्षा करेंगे।' दूसरे प्रश्न का उत्तर 'एवं दुक्खा ण मुच्चई' इस पंक्ति में आ जाता है, कि कोई भी धन-सम्पत्ति या कुटुम्बी जन शारीरिक, मानसिक दुःखों, रोग, जरा, मृत्यु आदि के भयंकर दु:खों या जन्ममरण की परम्परा के घोरतम कष्टों से तुम्हारी रक्षा करने में समर्थ नहीं है। मनुष्य अपनी रक्षा स्वयं ही कर सकता है, मन को ममत्व से हटा कर समत्व की ओर मोड़ कर । केवल दृष्टिकोण बदलने की जरूरत है। तभी वह जिन कर्मबन्धनों में जकड़ा हुआ था, उन कर्म बन्धनों से मुक्त (पृथक) हो सकता है।
तात्पर्य यह है कि संसार के जितने भी सजीव-निर्जीव पदार्थ हैं, जिन पर व्यक्ति ने ममत्वभाव स्थापित करके कर्म-बन्धन बाँधे हैं, वे सब अति कष्टदायी शारीरिक, मानसिक प्राणान्तक पीड़ा भोगते हुए ममत्वी जीव की रक्षा करने में समर्थ नहीं हैं, तथा प्राणियों का जीवन भी स्वल्प एवं नाशवान है यह सम्यक् प्रकार से मन-मस्तिष्क में ठसाकर-ज्ञपरिज्ञा से जान कर प्रत्याख्यान परिज्ञा से सचित्तअचित्त तमाम प्रकार का परिग्रह, जीवहिंसा और स्वजन वर्ग के प्रति ममत्व आदि बन्धन स्थानों, कर्म -बन्धन के कारणों का हृदय से सर्वथा त्याग कर दे तो मनुष्य कर्म-बन्धनों से मुक्त हो सकता है। अथवा उक्त बातों को भली-भांति जानकर जीव संयमानुष्ठानरूप क्रिया द्वारा बन्धन से छूट सकता है ।
प्रश्न होता है कि जब व्यक्ति उन कुटुम्बी जनों या धन सम्पत्ति के प्रति इतना स्नेह रखता है, उनके लिये स्वयं प्राण देने को तैयार रहता है, तब क्या वे उसकी पूर्वोक्त दुःखों से रक्षा नहीं कर सकेंगे ?
शास्त्रकार ने तो इसका उत्तर स्पष्ट इन्कार में दिया है-सबमेयं ण ताणइ । अनुभव से भी यह प्रत्यक्ष देखा जाता है—एक व्यक्ति असाध्य रोग से पीड़ित है, मरण
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