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समय : प्रथम अध्ययन--प्रथम उद्देशक
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चेव कम्मुणा उ तिउट्टई', तात्पर्य यह है कि बन्धन यहाँ कोई लोह शृंखला, रस्सी आदि का नहीं है, जिसे तोड़ने के लिये शरीर की ताकत लगानी पड़े, यहाँ 'परिणामे बन्धः' इस अनुभव सूत्र के अनुसार मनुष्य के शुभाशुभ परिणामों---पूर्वोक्त गाथाओं में वर्णित ममत्व, परिग्रह एवं हिंसा के भावों ---के अनुसार जो कठोर कर्मबन्धन हुए हैं, वे मन से हुए हैं और उन बन्धनों को तोड़ना भी मन से है । मन को मोड़ने
और दृष्टिकोण बदलने की आवश्यकता है। क्योंकि 'मन एव मनुष्याणां कारण बन्धमोक्षयोः' इस सूत्र के अनुसार मनुष्यों के बन्धन और मोक्ष (मुक्ति) का कारण उनका मन ही है । जिस मन को पहले धन-सम्पत्ति, कुटुम्ब-कबीलों के प्रति ममत्व तथा उनके लिये अनेक प्रकार की हिंसा में लगाया था, उसको एकदम वहाँ से मोड़ कर यह विचार करो कि जिस जीवन के लिये तुम इतना उखाड़-पछाड़ कर रहे हो, वह तो क्षणिक एवं नाशवान है तथा जिन चल-अचल एवं द्विपद, चतुष्पद आदि सचित्त प्राणिधन एवं स्वर्ण, रजत, रत्न, मणि, मणिक, भूमि, खेत, मकान, दुकान आदि अचित्त धन से और भाई, बहन, माता, पिता आदि कुटम्बीजनों से तुम रक्षा की आशा लगाए बैठे हो, वह भी निरर्थक है। क्योंकि समय आने पर एवं आयुष्य पूर्ण होने के समय ये सब कोई भी तुम्हें बचा नहीं सकते। कोई भी तुम्हें प्राणदान नहीं दे सकते । मृत्यु से रक्षा करने में ये कोई भी समर्थ नहीं हैं। चाहे जितना धन किसी को रिश्वत के रूप में दे दो, या डाक्टर, वैद्य, हकीम, यंत्रवादी, तंत्रवादी, मंत्रवादी, देवी-देव आदि को चाहे जितना धन दे दो, फिर भी वे मृत्यु को रोकने में समर्थ नहीं है । माता-पिता या भाई-बहन थोड़ी बहुत सेवा कर सकते हैं किन्तु कर्मों के फल तो जिसने बाँधे हैं, उसे ही भोगने पड़ेंगे, दूसरे कोई भी व्यक्ति उसके बदले में कर्मफल भोग नहीं सकते। ऐसी निरुपाय स्थिति में उचित यही है कि मन से इन सब के प्रति आशा, तृष्णा, मोह, ममता या मूर्छा के रूप में जो ममत्व बाँध रखा है, उसे मन से बिलकुल निकाल दें। ममत्व के मन से निकालते ही कर्मबन्धन स्वयं हट जायगे, आत्मा कर्म-बन्धन से छूट जायगा । 'मनुष्य ने मन से ही कर्म-बन्धन बाँध हैं, इन्हें इसी प्रकार के प्रखर चिन्तन-बल से एक झटके में तोड़ फेंके ।' |
वित्त सोयरिया चेव -- “वित्त' शब्द से यहाँ केवल सोना, चाँदी या सिक्के आदि अचित्त (जड़) धन ही नहीं, चेतन धन भी ग्रहण कर लेना चाहिए । 'सोयरिया' शब्द से एक ही उदर से जन्म लेने वाले सहोदर भाई-बहन ही नहीं, तमाम कुटुम्बीजनों का ग्रहण कर लेना चाहिए। इतना ही नहीं, शास्त्रकार का आशय 'वित्त' और 'सोयरिया' इन दो पदों से संसार के समस्त सचित्त-अचित्त परिग्रह से है, जिनका पहले वे उल्लेख कर चुके हैं। इसलिये यहाँ ये दोनों शब्द
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