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________________ याथातथ्य : तेरहवाँ अध्ययन ९०६ हिदायत दे दी कि वह आहार पानी में गृद्धिरहित होकर शुद्ध भिक्षा ग्रहण करे । स्थविरकल्पी साधु १६ उद्गम के, १६ उत्पादना के और १० एपणा के, यो ४२ दोषों से रहित भिक्षा ग्रहण करे, और जिनकल्पी साधु सात प्रकार की भिक्षा में से ५ प्रकार की भिक्षा का अभिग्रह और दो का ग्रहण करे। वह इस प्रकार है--- (१) संसृष्टा .. जिस वस्तु के लेप से गृहस्थ के हाथ भर हों, वही लेना, (२) असंसृष्टा -- जिस वस्तु से हाथ को लेप न लगता हो, वह सूखी चीज लेना, जैसे रोके हुए चने आदि, (३) उद्ध ता ....गृहस्थ ने अपने खाने के लिए जो आहार वर्तन में ले रखा हो, वही लेना, (४) अल्पलेपा -- जिस आहार में घी-तेल आदि का थोड़ा लेप हो, उसे लेना, (५) उद्गृहीता - परोसने के लिए जो आहार निकाला हो, उसे ही लेना, (६) प्रगृहीता---परोसने से बचा हुआ आहार ही लेना, (७) उज्झितधर्मा-- फैक देने योग्य आहार लेना। इनमें से पिछली दो प्रकार की भिक्षा जिनकल्पी साधु के लिए कल्पनीय है, शेष पाँच भिक्षाएँ अकल्पनीय । अथवा जो अभिग्रह है, उसके लिए वह एषणा है, शेष अनैपणा है । इस प्रकार एपणा-अनैपणा का विचार दिमाग में बिठाकर आहार आदि ग्रहण करे । ऐसे सुसाधु के लिए यहाँ दो विशेषण प्रयुक्त हैं--मुयच्चे, दिट्ठधम्मे । मुयच्चे का मृदर्चः रूप होता है, जिसका अर्थ है----प्रशस्त लेश्यायुक्त, दूसरा रूप संस्कृत में मृतार्चः होता है, जिसका अर्थ होता है जिसका शरीर मृतक की तरह है, यानी वह शरीर पर से अपनी ममता इतनी हटा ले कि कोई उसे काटे, मारे तो भी मृतवत् रहे, या किसी प्रकार का स्नानादि संस्कार न करे, शरीर-निरपेक्ष रहे । दूसरा है दृष्टधर्मा, अर्थात् जिसने धर्म को अपने जीवन में उतार कर देख लिया है, अनुभव कर लिया है। मूल पाठ अरति रति च अभिभूय भिक्खू , बहुजणे वा तह एगचारी । एगंतमोणेण वियागरेज्जा, एगस्स जंतो गति रागती य ॥१८॥ संस्कृत छाया अरति रति चाभिभूय भिक्षर्बहजनो वा तथैकचारी । एकान्तमौनेन व्यागृणीयात्, एकस्य जन्तोर्गतिरागतिश्च ।।१८।। अन्वयार्थ (भिक्खू अरति रति च अभिभूय) साधु संयम में अरुचि और असंयम में रुचि १. सात प्रकार की भिक्षा-संसट्ठमसंसट्ठा उद्धड तह होति अप्पलेवा य । उग्गहिया पग्गहिया उज्झियधम्मा य सत्तमिया ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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