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सूत्रकृतांग सूत्र
अन्त में १६वीं गाथा में सुसाधु को इन सभी मदस्थानों से अपने आप को अलग रखने का निर्देश किया गया है । क्योंकि प्रज्ञादि का मद संसार का कारण है। अत: रत्नत्रयरूप धर्म जिनके रग-रग में रमा हुआ है, वह सभी मदों का त्याग करके गोत्रादि के चक्कर से अपने को बिलकुल दूर रखकर ऊँचे उठ जाते हैं, महर्षि पद को प्राप्त करते हैं और एक दिन वे सर्वोच्च गति (मोक्ष) को प्राप्त कर लेते हैं, जहाँ नाम, गोत्र, जाति, आयु आदि सब समाप्त हो जाते हैं।
मूल पाठ भिक्ख मुयच्चे तह दिठधम्मे, गामं च णगरं च अणप्पविस्सा । से एसणं जाणमणेसणं च, अन्नस्स पाणस्स अणाणुगिद्धे ॥१७॥
संस्कृत छाया भिक्षुमुदर्चस्तथा दृष्टधर्मा, ग्रामं च नगरं चानुप्रविश्य । स एषणां जानन्ननेषणां च, अन्नस्य पानस्याननुगृद्धः ॥१७।।
__अन्वयार्थ (मुयच्चे तह दिधम्मे भिक्खू) मृदर्च अर्थात् उत्तम लेश्यावाला, धर्म को देखा-जाना (अनुभव किया) हुआ साधु (गाम णगरं च अणुप्पविस्सा) ग्राम और नगर में भिक्षा के लिए प्रवेश करके (से एसणं जाणं असणं च) वह एषणा और अनैषणा को जानता हुआ (अन्नस्स पाणस्स अणाणुगिद्ध) अन्न और पान में गृद्ध (आसक्त) न होता हुआ शुद्ध आहार ग्रहण करे ।
भावार्थ प्रशस्त लेश्यायुक्त तथा धर्म को जीवन में उतारा हुआ साधक भिक्षा के लिए गाँव या नगर में प्रवेश करके सर्वप्रथम एषणा और अनैषणा का विचार दिमाग में बिठाकर आहार-पानी में अनासक्त होकर शुद्ध भिक्षा ग्रहण करे।
__ व्याख्या सुसाधु एषणा-अनेषणा का विचार करके शुद्ध भिक्षा ले
साधु-जीवन में अहिंसा, अपरिग्रह एवं अस्तेयव्रत की दृष्टि से शुद्ध, दोषवजित भिक्षा का बहुत बड़ा महत्त्व है। किन्तु साधु जिस दृष्टि से या जिन हिंसादि दोषों से बचने के लिए भिक्षाचरी करता है, अगर वह एषणीय-अनैपणीय, ग्राह्य-अग्राह्य, कल्पनीय-अकल्पनीय आदि का विचार न करे और जैसे-तैसे, जो भी माल मिल गया, पात्रों में भर ले, तो वह हिंसादि दोषों से बचने के बदले दोषों का भण्डार ही भर लाएगा। इसलिए शास्त्रकार एपणा-अनैषणा को जानने की सर्वप्रथम प्रेरणा देते हैं-'से एसणं जाणमणेसणं च' । साधु को गांव में भिक्षा के लिए प्रवेश के समय गवेषणा और ग्रहणैषणा दोनों का विचार करना यहाँ अपेक्षित है। इसलिए खास
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