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सूत्रकृतांग सूत्र
को दबा या त्याग कर (बहुजणे वा तह एगचारी) बहुत लोगों के साथ रहता हो या अकेला रहता हो, (एगतमोणेण वियागरेज्जा) एकमात्र मौन - मुनिधर्म-संयम से अविरुद्ध - संगत हो, वही कहे । (एगस्स जंतो गतिरागती य) यह ध्यान रखे कि प्राणी अकेला ही परलोक में जाता है और अकेला ही आता है।
भावार्थ मुनि असंयम में दिलचस्पी और संयम में अरुचि न दिखाए, वह अपने संघाटक या गच्छ में अनेक मुनियों के साथ रहता हो, या अकेला ही रहता हो, सिर्फ ऐसी ही बात कहे, जिससे मुनिधर्म में आँच न आए, तथा यह ध्यान रखे कि जीव अकेला ही परलोक में जाता है और अकेला ही आता है।
व्याख्या
साधु के लिए साधना के कुछ सूत्र
साधु कई बार अनेक परीषहों या उपसर्गों अथवा आफतों से घिर जाने पर कठोर संयमचर्या से ऊब जाता है और तपाक से कह बैठता है या मन ही मन सोचता है - 'क्या ही अच्छा होता, मैं भी स्वच्छन्द विचरण करता । इस साधु-जीवन में तो इतनी पाबन्दी है कि कहीं स्वतंत्र जा-आ नहीं सकते, चलचित्र नहीं देख सकते, इन्द्रियों के विषयों को खुलेआम मनमाना सेवन करना क्या बुरा है ?' इस प्रकार असंयम के तूफानी और संयम विध्वंसक विचार आ जाएँ, यानी अशुभ कर्मोदय से असंयम के प्रति रुचि जग उठे, प्रबल झुकाव होने लगे, और संयम के प्रति निष्ठा शिथिल होने लगे, अरुचि होने लगे, संयम को छोड़-छिटका देने की मन में हूक उठे, तो शास्त्रकार कहते है--'अरति रति च अभिभूय ।' आशय यह है, कि पूर्वोक्त विपरीत विचार आने लगे तो साधु संसार के स्वभाव तथा नरक-तिर्यञ्चगतियों के दुःखों के सम्बन्ध में गहराई से सोचे कि इस प्रकार के विपरीत विचारों से घोर कर्मबन्धन होता है, इसी असंयम के फलस्वरूप ये संसारस्थ नाना जीव अनेक गतियों में गमनागमन करते हैं और अनेक घोर दुःख पाते हैं। क्या मैं भी साधु होकर, मोक्ष का यात्री होकर फिर असंयम में पड़कर संसार-यात्री बनूँगा ? इस प्रकार चिन्तन करके वह असंयम में रति व संयम में अरति का झटपट त्याग कर दे। यदि पूर्वसंस्कारवश कभी असंयम में रुचि और संयम में अरुचि पैदा हो जाय तो उसे भी ज्ञानबल से दबा दे और निष्ठापूर्वक संयम का पालन करे ।
मूल पाठ सयं समेच्चा अदुवाऽवि सोच्चा, भासेज्ज धम्मं हिययं पयाणं । जे गरहिया सणियाणप्पओगा, ण ताणि सेवंति सुधोरधम्मा ॥१६॥
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