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सूत्रकृतांग सूत्र
जाति आदि मदों में उन्मत्त त्यागी एवं क्रियाकाण्डी साधकवर्ग को साहस भरी चुनौती दी है । कहाँ तो इतना ऊँचा त्याग है कि पास में एक कौड़ी भी नहीं रखता, बिलकुल अकिंचन, मस्त और भिक्षा पर निर्भर एवं रूखा-सूखा आहार करने वाला अत्यन्त निःस्पृह साधक, और कहाँ इतना नीचा गिरा हुआ जीवन कि पूजा, सत्कार, प्रतिष्ठा, प्रशंसा, प्रसिद्धि और नामना, कामना की तीव्र भूख लगी रहती है, हर समय और हर व्यक्ति के सामने अपने उच्च क्रियाकाण्डों और तपस्या की डींग हाँकी जाती है, तप-संयम के प्रभाव से जो भी कुछ लब्धि या सिद्धि प्राप्त हुई, उसे सुनासुनाकर बार-बार गर्वपूर्वक कहा जाता है - मेरे इतने शिष्य-शिष्याएँ हैं, इतने भक्त हैं, इतनी सिद्धियाँ प्राप्त हैं, इतना बढ़िया आहार आदि देने को लोगों की होड़ लगी रहती है, इतनी सुख-शान्ति है, इतना आराम है । ये सब डींग इसलिए हाँकी जाती है कि लोगों में हमारी पूछ हो, लोगों की भीड़ हाथ जोड़ खड़ी हो, हमें भगवान माने । किन्तु शास्त्रकार कहते हैं-'आजीवमेयं ।' ये सब क्रियाकाण्ड, तप, संयम आदि उसने आजीविका के साधन बना दिये । सौदेबाजी कर ली तप-संयमसाधना की । और फिर उसका नतीजा क्या मिलेगा, ऐसी सौदेबाजी करने वाले को ? शास्त्रकार कहते हैं--- 'पुणो पुणो विपरियासुर्वेति' । अर्थात् जिस सुख, शान्ति और सुगति की आशा से ऐसा साधक इतनी कठोर साधना करता है, वह निराशा में परिणत हो जाती है, उसे दुर्गति और दुःखों का ही सामना करना पड़ेगा। वह बार-बार जन्म-मरण के चक्र में घूमता रहेगा।
कुछ त्यागी साधु ऐसे भी होते हैं, जो कई भाषाओं के ज्ञाता होते हैं, उन भाषाओं के व्याकरण तथा गुण-दोषों को जानने में निपुण होते हैं । लच्छेदार, मधुर, सुललित, प्रिय, हित, मित भाषा में भाषण करते हैं, इतना सुन्दर छटादार भाषण देते हैं कि लोग आकर्षित होकर वाह-वाह कह उठते हैं। साथ ही वे इतने प्रतिभाशाली होते हैं कि कोई भी व्यक्ति कैसा भी अटपटा प्रश्न पूछे, उनके पास उत्तर सैयार रहता है। धर्मकथा करते समय वे श्रोताओं के चेहरों को देखकर उनके मनोभावों को ताड़ जाते हैं । कौन, कैसा, किसका अनुयायी है ? इसे वे तुरन्त भाँप लेते हैं । इसके अतिरिक्त किसी भी शास्त्र की व्याख्या करने में वे इतने सिद्धहस्त होते हैं कि नई-नई स्फुरणा के द्वारा नये-नये गहन अर्थों को खोल देते हैं, प्रत्येक शब्द का पुर्जा-पुर्जा खोल देते हैं । इतना ही नहीं, सत्य तत्त्वों में उनकी पैनी तेज-तर्रार बुद्धि गहराई तक प्रविष्ट हो जाती है और धर्मभावना उनके मनमस्तिष्क में लबालब भरी हुई है । किन्तु सोने की थाली के समान इतने सब गुणों से युक्त होते हुए भी वे साधक थाली में लगी हुई काँटेदार लोहे की मेखों के समान अभिमान के काँटों से भरे होते हैं। वे बात-बात में अपनी भाषाविज्ञता और शास्त्रज्ञता के अभिमान को प्रकट करते रहते हैं। जब भी किसी सभा या धर्मकथा में वे किसी जिज्ञासु या कुछ
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