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याथातथ्य : तेरहवाँ अध्ययन
( धीरा एयाइं मयाई विगिच ) धीर पुरुष इन मदस्थानों से अपने को हटाएदूर करे | ( सुधीरधम्मा ताणि ण ऐवंति ) सुधीरवीर वीतराग पुरुषों के ज्ञान-दर्शनचारित्र धर्म से युक्त साधक उन मदस्थानों का सेवन नहीं करते । ते सव्वगोत्ता
गया महेसी) वे समस्त गोत्रों से अलग-अलग निर्लेप महर्षिगण ( उच्च अगोत्त गति च वर्धति) सर्वोच्च तथा गोत्रादि से बिलकुल रहित मोक्षगति को प्राप्त करते हैं ॥१६॥
भावार्थ
जो साधक अपने पास एक कौड़ी भी नहीं रखता, अकिंचन है, भिक्षा से अपना निर्वाह करता है, तथा रूखा-सूखा आहार खाकर जीता है, इसके बावजूद भी यदि वह ऋद्धि, रस और साता का गर्व करता है, और अपनी स्तुति प्रशंसा की लालसा रखता है, तो उसके ये पूर्वोक्त गुण सिर्फ जीविका के साधन हैं। ऐसा परमार्थ तत्त्व से अनभिज्ञ वह मूढ़ बार-बार संसार में जन्म-मरण आदि के दुःखों और दुर्गति को प्राप्त करता है ||१२||
जो साधु भाषा के गुण-दोषों तथा व्याकरण के नियमों का विज्ञ है तथा मधुर, सुललित हित, मित भाषा में बोलता है, प्रतिभाओं ( औत्पातिकी आदि बुद्धियों) से सम्पन्न है, शास्त्रों के विभिन्न अर्थ और विश्लेषण करने में विशारद ( निपुण), यथार्थ तत्त्व में जिसकी बुद्धि प्रविष्ट है एवं धर्मभावना से जिसका अन्तःकरण भावित है, वही सुगाधु है । मगर जो इन गुणों से युक्त होकर भी इनके मद में अन्धा होकर दूसरों का तिरस्कार करता है, वह अविवेकी है ||१३|| जो साधु बुद्धिमान् होकर गर्व करता है, अथवा जो अपने लाभ के मद से मत्त होकर दूसरे लोगों को बदनाम करता है या झिड़कता है, वह अतत्त्वदर्शी मूढ़ समाधि प्राप्त नहीं कर पाता ।। १४ ।।
साधु प्रज्ञामद, तपोमद, गोत्रमद और आजीविकामद न करे । जो मद नहीं करता है, वही पण्डित साधक है और सर्वश्रेष्ठ व्यक्तित्व का धनी है ।। १५ ।।
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धीर पुरुष पूर्वोक्त मदस्थानों से अपने को अलग रखे, क्योंकि सुधीर सर्वज्ञ प्रभु के द्वारा उक्त ज्ञानदर्शनचारित्ररूप धर्म से युक्त साधक उन मदस्थानों का सेवन नहीं करते । अतः वे सब गोत्रों से रहित महर्षि होकर सर्वोच्च नाम गोत्रादि से बिलकुल परे मोक्षगति को प्राप्त करते हैं ||१६||
व्याख्या
इतना उच्च त्याग होने पर भी मदत्याग न करने का फल १२वीं गाथा से लेकर १६वीं गाथा तक में शास्त्रकार ने जाति आदि मदों के त्याग न करने पर उच्च से उच्च त्याग को भी निःसार और निरर्थक बताकर
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