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________________ ६०४ एवं न सभवति समाधिप्राप्तः यः प्रज्ञावान् भिक्षुयुत्कर्षेत् अथवाऽपि यो लाभमदावलिप्तः, अन्यं जनं निन्दति बालप्रज्ञः प्रज्ञामदं चैव तपोमदं च निर्नामयेद् गोत्रमदं च भिक्षुः आजीवगं चैव चतुर्थमाहुः, स पण्डितः उत्तमपुद्गलः स एतान् मदान् विविच्युधीरा, न तान् सेवन्ते सुधीरधर्माण: ते सर्वगोत्रापगता महर्षयः, उच्चामगोत्रां च गतिं ब्रजन्ति अन्वयार्थ सूत्रकृतांग सूत्र (जे भिक्खू निक्किचणे ) जो भिक्षाजीवी साधु निष्किचन अर्थात् अपरिग्रही है, भिक्षान्न से पेट भरता है, ( सुलहजीवी) जो रूखा-सूखा आहार करके जीता है, ( जे गारवं सिलोगगामी होइ ) अगर वह अपनी ऋद्धि, रस और साता ( सुखसामग्री ) का गर्व (गौरव) करता है, तथा अपनी प्रशंसा एवं स्तुति की आकांक्षा रखता है, तो ( आजीव मेयं तु ) तो ये सब ( अकिंचनता, रूक्षजीविता, भिक्षाजीविता आदि ) गुण केवल उसकी आजीविका के साधन हैं । ( अबुज्झमाणो पुणो पुणो विप्परिया सुर्वेति ) परमार्थ को जानने वाला वह अज्ञानी बार-बार संसार में विपर्यास - सुख और सुगति की आशा के विपरीत जन्ममरणादि दुःख और दुर्गति को प्राप्त करता है ॥ १२ ॥ Jain Education International I ।। १४ ।। 1 ।।१५।। 1 ।।१५।। ( जे भिक्खू भासवं सुसाहुवादी ) जो साधु भाषा विज्ञ है, सुन्दर सुललित भाषा बोलता है या हित-मित प्रिय भाषण करता है ( पडिहाणवं ) औत्पातिकी आदि प्रतिभाओं (बुद्धियों) से सम्पन्न है, ( विसारए होइ य ) और शास्त्रपाठों की सुन्दर व्याख्या एवं अनेक प्रकार से अर्थ करने में विशारद निपुण है. ( आगाढवण्णे) तथा सत्य तत्त्व में जिसकी बुद्धि प्रविष्ट है, (सुविभावियप्पा ) धर्म की भावना से जिसका हृदय अच्छी तरह भावित है, वही सच्चा साधु है । परन्तु इतने गुणों से युक्त होने पर भी जो (अन्नं जणं पन्नया परिहवेज्जा ) इन गुणों के मद से ग्रस्त होकर दूसरे लोगों का अपनी बुद्धि से तिरस्कार कर देता है, वह साधु नहीं है ||१३|| (जे पनवं भिक्खू विउक्कसेज्जा) जो साधु बुद्धिमान होकर जाति, बुद्धि आदि का गर्व करता है, ( अहवा वि जे लाभमयावलित्तं ) अथवा जो साधु अपने लाभ के मद में उन्मत्त होकर (अन्नं जणं खिसइ) दूसरे लोगों की निन्दा करता है, या उन्हें झिड़कता है, से बालपने समाहिपत्त न होइ ) वह बाल- बुद्धि-मूर्ख समाधि प्राप्त नहीं करता || १४ || ( भिक्खू पन्नामयं चैव तवोमयं च ) साधु बुद्धि के (प्रज्ञा) गर्व को तथा तप के मद को (गोयामयं च ) एवं गोत्र के मद को चउत्थं आजीवगं चेव आहु) और चौथा जो आजीविका का मद कहा है, उसको ( विन्नामए) तिलांजलि दे दे, त्याग दे । ( से पंडिए, से उत्तम पोग्गले ) जो ऐसा करता है, वही पण्डित साधु है और वही उत्तम आत्मा है ।। १५ ।। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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