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एवं न सभवति समाधिप्राप्तः यः प्रज्ञावान् भिक्षुयुत्कर्षेत् अथवाऽपि यो लाभमदावलिप्तः, अन्यं जनं निन्दति बालप्रज्ञः प्रज्ञामदं चैव तपोमदं च निर्नामयेद् गोत्रमदं च भिक्षुः आजीवगं चैव चतुर्थमाहुः, स पण्डितः उत्तमपुद्गलः स एतान् मदान् विविच्युधीरा, न तान् सेवन्ते सुधीरधर्माण: ते सर्वगोत्रापगता महर्षयः, उच्चामगोत्रां च गतिं ब्रजन्ति अन्वयार्थ
सूत्रकृतांग सूत्र
(जे भिक्खू निक्किचणे ) जो भिक्षाजीवी साधु निष्किचन अर्थात् अपरिग्रही है, भिक्षान्न से पेट भरता है, ( सुलहजीवी) जो रूखा-सूखा आहार करके जीता है, ( जे गारवं सिलोगगामी होइ ) अगर वह अपनी ऋद्धि, रस और साता ( सुखसामग्री ) का गर्व (गौरव) करता है, तथा अपनी प्रशंसा एवं स्तुति की आकांक्षा रखता है, तो ( आजीव मेयं तु ) तो ये सब ( अकिंचनता, रूक्षजीविता, भिक्षाजीविता आदि ) गुण केवल उसकी आजीविका के साधन हैं । ( अबुज्झमाणो पुणो पुणो विप्परिया सुर्वेति ) परमार्थ को जानने वाला वह अज्ञानी बार-बार संसार में विपर्यास - सुख और सुगति की आशा के विपरीत जन्ममरणादि दुःख और दुर्गति को प्राप्त करता है ॥ १२ ॥
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( जे भिक्खू भासवं सुसाहुवादी ) जो साधु भाषा विज्ञ है, सुन्दर सुललित भाषा बोलता है या हित-मित प्रिय भाषण करता है ( पडिहाणवं ) औत्पातिकी आदि प्रतिभाओं (बुद्धियों) से सम्पन्न है, ( विसारए होइ य ) और शास्त्रपाठों की सुन्दर व्याख्या एवं अनेक प्रकार से अर्थ करने में विशारद निपुण है. ( आगाढवण्णे) तथा सत्य तत्त्व में जिसकी बुद्धि प्रविष्ट है, (सुविभावियप्पा ) धर्म की भावना से जिसका हृदय अच्छी तरह भावित है, वही सच्चा साधु है । परन्तु इतने गुणों से युक्त होने पर भी जो (अन्नं जणं पन्नया परिहवेज्जा ) इन गुणों के मद से ग्रस्त होकर दूसरे लोगों का अपनी बुद्धि से तिरस्कार कर देता है, वह साधु नहीं है ||१३||
(जे पनवं भिक्खू विउक्कसेज्जा) जो साधु बुद्धिमान होकर जाति, बुद्धि आदि का गर्व करता है, ( अहवा वि जे लाभमयावलित्तं ) अथवा जो साधु अपने लाभ के मद में उन्मत्त होकर (अन्नं जणं खिसइ) दूसरे लोगों की निन्दा करता है, या उन्हें झिड़कता है, से बालपने समाहिपत्त न होइ ) वह बाल- बुद्धि-मूर्ख समाधि प्राप्त नहीं करता || १४ ||
( भिक्खू पन्नामयं चैव तवोमयं च ) साधु बुद्धि के (प्रज्ञा) गर्व को तथा तप के मद को (गोयामयं च ) एवं गोत्र के मद को चउत्थं आजीवगं चेव आहु) और चौथा जो आजीविका का मद कहा है, उसको ( विन्नामए) तिलांजलि दे दे, त्याग दे । ( से पंडिए, से उत्तम पोग्गले ) जो ऐसा करता है, वही पण्डित साधु है और वही उत्तम आत्मा है ।। १५ ।।
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