________________
याथातथ्य : तेरहवाँ अध्ययन
८६
प्रतिबिम्ब के समान निरर्थक या तुच्छ देखता है। ऐसा अभिमानी साधक याथातथ्यचारित्र से रहित है।
व्याख्या
अभिमानी साधक : अपने ही मोक्ष के लिए बाधक इस गाथा में शास्त्रकार ने याथातथ्यचारित्र से विपरीत चलने वाले अभिमानी एवं मदान्ध साधक की मनोवृत्ति का चित्रण किया है। प्रायः ज्ञानी, तपस्वी
और क्रियाकाण्डी साधक को अपने ज्ञान, तप और क्रियाकाण्ड पर गर्व होता है । उस मद में आकर वह अपने आपे से बाहर हो जाता है, वह मुहफट होकर अपने अपने मुंह से अपनी बड़ाई करने के लिए हरदम फटा पड़ा रहता है। वह प्रसंग हो या न हो, कोई अन्य महत्वपूर्ण बात कर रहा हो, तब भी बीच में टपककर अपनी रामायण सुनाने लगता है, अपने प्रशंसा-पुराण के गीत गाने लगता है। लोगों को उसकी बातों में रस आए या न आए, वह कहे चला जाता है। किन्तु यह असभ्यता और स्वत्वमोह एवं मद कर्मबन्ध का भी कारण है। ऐसा साधक अपने सत्व का उचित मूल्यांकन नहीं कर पाता और कहता फिरता है---'मैं बहुत बड़ा विद्वान् और ज्ञानी हूँ। मेरे सामने विवाद में कोई नहीं टिक पाता।' और वह बड़े से बड़े ताकिक और विद्वान के साथ विवाद के लिए भिड़ जाता है। कोई तपस्वी हो तो अपनी तपस्या के गीत गाने लगता है। कहता है -- इस इलाके में मेरे बराबर कोई तपस्वी नहीं । कोई मेरे बराबर तप करके तो देखे । मैंने अपने शरीर को जितना तपाया है, उतना कोई क्या तपाएगा? कोई क्रियाकाण्डी भी दूसरों को झिड़कता हुआ अपनी शेखी बघारता है—मैं उत्कृष्ट संयम का धनी हूँ। मेरे सामने वह कुछ भी नहीं है । अमुक साधक मेरी तो क्या, मेरी परछाई की भी होड़ नहीं कर सकता। शास्त्रकार कहते हैं कि ऐसा मदान्ध व्यक्ति दूसरों को जल में पड़े हुए चन्द्रमा के प्रतिबिम्ब की तरह तुच्छ समझता है । यह मूल्यांकन यथार्थ न होने के कारण अयाथातथ्य है । सुसाधक को इस प्रकार की मदान्धता से दूर रहना चाहिए ।
__ मूल पाठ एगंतकूडेण उ से पलेइ, ण विज्जई मोणपयंसि गोत्ते । जे माणणद्वेण विउक्कसेज्जा, वसुमन्नतरेण अबुज्झमाणे ॥६॥
संस्कृत छाया एकान्तकूटेन तु स पर्येति, न विद्यते मौनपदे गोत्रे यो माननार्थेन व्युत्कर्षयेत्, वसुमदन्यतरेणावबुध्यमानः ॥६॥
अन्वयार्थ (से एगंतकूडेण उ पलेइ) वह पूर्वोक्त अहंकारी साधु अत्यन्त मोह माया में
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org