SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 945
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १०० सूत्रकृतांग सूत्र पड़कर बार-बार संसार में परिभ्रमण करता है। (मोणपयंसि गोते ण विज्जई) वह समस्त आगम-वाणी के आधारभूत मौनीन्द्र-सर्वज्ञ वीतराग के पद-मार्ग में अथवा मौनीन्द्रों के पद -- संयम में नहीं रहता है। (जे माणणठेण विउक्कसेज्जा) तथा जो सम्मान-प्राप्ति के लिए संयमोत्कर्ष या ज्ञानादि का मद करता है, (वसुमन्नतरेण अबुज्झमाणे) एवं संयमी होकर भी वह ज्ञानादि का मद करने से परमार्थ को नहीं जानता। भावार्थ पूर्वोक्त मदान्ध साधक एकान्त मोह-माया रूपी भाव-कूट (पाशवन्धन) में पड़कर संसार में बार-बार परिभ्रमण करता है। तथा वह आगम-वाणी के आधारभूत सर्वज्ञ प्रभु के मार्ग में अथवा मुनीन्द्रों के पद-संयम में स्थित नहीं है, जो सम्मान-सत्कार पाने के लिए अपने ज्ञान, तप, संयमादि की बड़ाई करता है। वास्तव में जो संयम लेकर भी ज्ञानादि का मद करता है, वह मूढ़ है, वह परमार्थ को नहीं जानता है। व्याख्या मूढ़ मदान्ध साधक मुनीन्द्र पद में स्थित नहीं इस गाथा में मदान्ध साधक को मुनीन्द्रों (सर्वज्ञ तीर्थंकरों) के मार्ग या संयम से बहिर्भूत बताकर उसकी इहलोक-परलोक में होने वाली दुर्दशा का दिग्दर्शन किया गया है। वास्तव में जो साधक पूर्वगाथाओं में उक्त प्रकार से अहंकार, मोह, माया, क्रोध आदि करता है, वह अपनी उसी वृत्ति से अभ्यस्त होने के कारण तीर्थंकरों की सच्ची राह से भटक जाता है और एकान्त मोहमाया के चक्कर में पड़कर बार-बार जन्म-मरण करता रहता है । वह मुनीन्द्रों के पदरूप संयममार्ग में अथवा आगमवाणी के आधारभूत वीतरागप्रणीत मार्ग में स्थित नहीं रहता। उसकी दशा धोबी के कुत्ते की तरह न घर की रहती है, न घाट की। वह कहीं से थोड़ा-सा पूजा-सत्कार पाकर गर्व से फूल उठता है, और अधिकाधिक सम्मान पाने की नीयत से अपने ज्ञानादि की स्वयं प्रशंसा करता है । वास्तव में वह संयम लेकर भी ज्ञानादि के मद में अन्धा होकर वास्तविक (याथातथ्य) मार्ग को नहीं देख पाता, न दूसरे से जाननेसमझने का प्रयत्न करता है या वह सब शास्त्रों को पढ़कर तथा उनका अर्थ समझकर भी वस्तुतः सर्वज्ञ मत को नहीं जानता। मूल पाठ जे माहणो खत्तियजायए वा, तहुग्गपुत्त तह लेच्छई वा । जे पव्वइए परदत्तभोई, गोत्त' ण जे थन्भति माणबद्ध ॥१०॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy