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सूत्रकृतांग सूत्र वही साधक शत्रु-मित्र पर सम, या मध्यस्थ अथवा वीतराग के समान है, मायारहित है।
. व्याख्या
याथातथ्यचारित्र से सम्पन्न साधक
__इस गाथा में याथातथ्य चारित्र से सम्पन्न साधक का चित्रण किया गया है। जो संसार से उद्विग्न विरक्त साधक होता है, वह प्रमादवश भूल हो जाने पर बारबार गुरु द्वारा अनुशासित होने पर उन्मार्ग प्राप्त कराने वाले कारणों के त्याग, आलोचनादि द्वारा आत्मशुद्धि आदि का आदेश देने पर भी अपनी चित्तवृत्ति को यथावत् पवित्र बनाए रखता है, आपे से बाहर नहीं होता। वह विनयादि गुणों से युक्त तथा मृदुभाषी होता है। वह सूक्ष्म अर्थ को देखने या करने वाला होने से 'सूक्ष्म' है, वही वस्तुतः ज्ञानादि में पुरुषार्थ करने वाला है, जो क्रोधादि के वशीभूत हो जाता है, वह पुरुषार्थी नहीं है । तथा वही पुरुष जाति-कुलवान है । जो शीलसम्पन्न है, वही जाति-कुलवान होता है । केवल ऊँचे कुल में पैदा होने से कोई कुलीन नहीं कहलाता । वही पुरुष सहज-सरलरूप से साध्वाचार का पालन करता है जो निन्दा-प्रशंसा में सम रहता है, वही साधक क्रोध या माया से रहित है अथवा वही साधक वीतराग के समान है।
मूल पाठ जे आवि अप्पं वसुमंति मत्ता, संखाय वायं अपरिक्ख कुज्जा । तवेण वाहं सहिउत्ति मत्ता अण्णं जणं पस्सति बिबभूयं ॥८॥
संस्कृत छाया यश्चाऽप्यात्मानं वसुमन्तं मत्त्वा, संख्यावन्तं वादमपरीक्ष्य कूर्यात । तपसा वाऽहं सहित इतिमत्त्वा, अन्यं जनं पश्यति बिम्बभूतम् ॥८॥
अन्वयार्थ (जे आवि अप्पं वसुमंति मत्ता) जो अपने आपको संयम एवं ज्ञान का धनी मानकर (अपरिक्ख वायं कुज्जा) अपनी जाँच-परख किये बिना किसी के साथ वाद छेड़ देता है या अपनी बड़ाई हाँकता है । (तवेण वाहं सहिउत्ति मत्ता) मैं बड़ा तपस्वी (तप से युक्त) हूँ, ऐसा मानकर (अण्णं जणं पस्सति बिंबभूयं) दूसरे लोगों को जल में चन्द्रमा की पड़ी हुई परछाई की तरह तुच्छ समझता है, या निरर्थक देखता है ।।
भावार्थ जो स्वयं को संयमी एवं ज्ञानवान समझकर अपना पूरी तरह मूल्यांकन किये बिना ही अपनी बड़ाई हाँकता है, अथवा किसी के साथ विवाद करता है, मैं बड़ा तपस्वी हूँ, यह मानकर दूसरों को जल में पड़े हुए चन्द्रमा के
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