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________________ याथातथ्य : तेरहवाँ अध्ययन से युक्त होने के कारण मध्यस्थ-सम नहीं हो सकता है। बल्कि ऐसा व्यक्ति झगड़ेACT से दूर नहीं रह सकता । अथवा ऐसा व्यक्ति माया से रहित नहीं हो पाता । यह है अयाथातथ्य साधक का रूप ! दूसरी ओर, इससे विपरीत एक सुविनीत साधक है, जो गुरु के सान्निध्य में दोषों से रहित होकर रहता है, गुरु के आदेशानुसार सभी क्रियाओं में प्रवृत्त होता है अथवा शास्त्रोक्त उपदेश के अनुसार प्रवृत्ति करता है, तथा मूलगुण- उत्तरगुणों के पालन में दत्तचित्त रहता है अथवा साध्वाचारविरुद्ध चलने में गुरु आदि से लज्जित होता है, एवं उसकी दृष्टि जीवादि तत्त्वों पर निश्चित ( स्पष्ट ) होती है । ऐसा साधक सदा समस्त मायारहित होता है । यहाँ 'य' (च) शब्द पड़ा है, जिससे पूर्वोक्त दोषों से रहित होना भी ध्वनित होता है । अर्थात् ऐसा साधक अपने गुरु का नाम नहीं छिपाता, क्रोध, कपट, कलह एवं अभिमान से दूर रहता है । यह अमायी, याथातथ्य चारित्रयुक्त साधक का चित्र है । सुविहित साधक को पूर्वोक्त दोषों से सदा दूर रहना चाहिए । मूल पाठ से पैसले सुहुमे पुरिसजाए, जच्चन्निए चेव सुउज्जुयारे । बहुप असासिए जे तहच्चा, समे हु से होइ अपते ||७|| संस्कृत छाया स पेशलः सूक्ष्मः पुरुषजातः, जात्यन्वितश्चैव सुऋज्वाचारः । बह्वप्यनुशास्यमानो यस्तथार्चः, समः स भवत्य झंझाप्राप्तः ॥७॥ ८६७ अन्वयार्थ ( बहुपि अणुसासिए जे तहच्चा ) भूल होने पर आचार्य आदि के द्वारा अनेक बार शिक्षा पाकर (अनुशासित होकर) भी जो अपनी चित्तवृत्ति को शुद्ध रखता है, ( से पेसले सुहुमे पुरिसजाए ) वही साधक विनय आदि गुणों से युक्त है, या मृदुभाषी है, सूक्ष्मदर्शी है, पुरुषार्थ करने वाला है । ( जच्चन्निए चेव सुउज्जुयारे ) वही साधक उत्तम जाति से समन्वित और साध्वाचार में सहज-सरल भाव से ही प्रवृत्त रहता है । ( से हु समे अझंझपत्त होइ ) वही साधक सम ( शत्रु-मित्र पर समभाव रखने वाला) या मध्यस्थ एवं अमायाप्राप्त होता है । भावार्थ किसी विषय में प्रमादवश भूल हो जाने पर गुरु आदि द्वारा बारबार अनुशासित किया जाने ( शिक्षा देने) पर भी जो चित्तवृत्ति को सही ( यथार्थ ) रखता है, वही साधक विनयादि गुणों से युक्त, सूक्ष्मार्थदर्शी, पुरुषार्थी है, वही जातिसम्पन्न और साध्वाचार में सहजभाव से प्रवृत्त है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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