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________________ ८६६ सूत्रकृतांग सूत्र महफट होकर बकना आदि लड़ाई उकसाने के नुस्खे अजमाता है। फलत: वह अन्धे के समान औंधे मुंह गिर पड़ता है, कांटा, बिच्छ्, साँप आदि से पीड़ित होता है । ऐसा पापकर्मी जीव परलोक में जन्ममरणरूप चतुर्गतिक रासार में बार-बार परिभ्रमण करता रहता है, नाना प्रकार की यातनाएँ भोगता है । इसलिए कषायरूप अयाथातथ्य से बचना साधक के लिए अभीष्ट है । मूल पाठ जे विग्गहीए अन्नायभासी, न से समे होइ अझंझपत्त । उववायकारी य हरोमणे य, एगंतदिठो य अमाइरूवे ॥६॥ संस्कृत छाया यो विग्रहिकोऽन्यायभाषी, नाऽसौ समो भवत्यझंझाप्राप्तः । उपपातकारी च ह्रीमनाश्च, एकान्तदृष्टिश्चामायिरूपः ॥६।। अन्वयार्थ (जे विग्गहीए) जो साधक कलहकारी है, (अन्नायभाषी) अन्याययुक्त बोलता है, (जे समे न होइ) ऐसा व्यक्ति सम - मध्यस्थ नहीं हो सकता, (अझंशपत्ते) और वह कलहरहित नहीं होता, (उववायकारो) किन्तु जो गुरु के सान्निध्य में रहता है, या गुरु की आज्ञा पालन करता है, (हरोमणे य) पाप करने में गुरु आदि से लज्जित होता है, (एगंतदिछी य) तथा जीवादि तत्त्वों में उसकी दृष्टि या श्रद्धा स्पष्ट एवं निश्चित होती है, (अमाइरूवे) वही साधक अमायोरूप (सरलस्वभावी) होता है। भावार्थ __ जो साधक कलह करता है, न्यायविरुद्ध बोलता है, ऐसा व्यक्ति मध्यस्थ नहीं हो पाता और वह झगड़ेबाजी से भी दूर नहीं होता; इसके विपरीत जो साधक गुरु के सान्निध्य में रहता है या उनके आदेश के अनुसार कार्य करता है, पाप करने में गुरु आदि से लज्जित होता है, तथा जीवादितत्त्वों में उसकी दृष्टि या श्रद्धा स्पष्ट एवं निश्चित होती है, वही साधक अमायीरूप होता है। व्याख्या साधक के परस्परविरोधी दो रूप __ इस गाथा में अयाथातथ्य और याथातथ्य चारित्र से युक्त दो प्रकार के परस्पर विरोधी साधकों का चित्रांकन किया गया है। जो साधक यथार्थ तत्त्व को या जीवन के महासत्य को न जानकर रात-दिन लड़ाई-झगड़े में रचापचा रहता है, कोई उसे कलह से होने वाली हानियाँ बताता है, और उसे कलह से विरत होने को कहता है, तो भी वह अपनी आदत को नहीं छोड़ता। फलत: ऐसे व्यक्ति राग-द्वेष Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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