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________________ याथातथ्य : तेरहवाँ अध्ययन ८६३ की स्थापना करे, इतना ही नहीं, जनता में उसका जोर-शोर से प्रचार करे, सत्यप्ररूपकों पर कीचड़ उछाले, उनकी निन्दा करे, यह घोर निह्नवता या अयाथातथ्यप्ररूपण है। इसका दुष्परिणाम बताते हुए शास्त्रकार कहते हैं -- 'अट्ठाणिए होइ बहुगुणाणं ।' ये तीनों ही प्रकार के अयाथातथ्य प्ररूपक बहुत-से उत्तम ज्ञानादि गुणों के भाजन नहीं होते ; किन्तु दोषों के ही भाजन बन जाते हैं। वे उत्तमोत्तम गुण कौन-से हैं ? इसलिए एक प्राचीन गाथा प्रस्तुत है। सुस्सूसइ पडिपूच्छइ सुणेइ गेण्हइ य ईहए वावि। तत्तो अपोहए वा धारेइ करेइ वा सम्मं ॥ अर्थात .....पहले गुरु से ज्ञान सुनता है, फिर प्रश्न करता है, पश्चात् उनका उत्तर सुनता है, तब उसे ग्रहण करता है, इसके बाद तर्क-वितर्क करता है, उसका समाधान होने पर निश्चय करता है और उसे अपने दिमाग में जमाकर याद रखता है। इन सबके बाद वह तदनुसार आचरण करता है। अथवा यों भी कहा जा सकता है कि सद्गुरु की सेवा-सुथ पा करने से सम्यग्ज्ञान की प्राप्ति होती है, सम्यग्ज्ञान होने के बाद आचरण भी सम्यक होता है और सम्यक् आचरण से मोक्ष की प्राप्ति होती है। उक्त तीनों प्रकार के निह्नव इन उत्तम गुणों के पात्र नहीं बनते । कहींकहीं 'अठ्ठाणिए होई बहुणिवेसे' पाठ मिलता है। इसका अर्थ यह है कि बहुत अनर्थ करने वाला कदाग्रही व्यक्ति ज्ञानादि गुणों का पात्र नहीं होता, अपितु दोषों का स्थान बनता है। ऐसे लोग भयंकर अनर्थकारी एवं अनन्तसंसारी इसलिए होते हैं कि वे अपनी मनमानी विपरीत प्ररूपणा को हजारों-लाखों लोगों के दिलदिमागों में ठसाकर उन्हें भी कुमार्गगामी और अनन्तसंसारी बना देते हैं। मूल पाठ जे यावि पुट्ठा पलिउंचयंति, आयाणमळं खलु वंचयंति । असाहुणो ते इह साहुमाणी, मायणि एसंति अणंतघायं ॥४॥ संस्कृत छाया ये चाऽपि पृष्टा: परिकुञ्चयन्ति, आदानमर्थं खलु वंचयन्ति । असाधवस्ते इह साधुमानिनो मायान्विता एष्यन्त्यनन्तघातम् ।।४।। अन्वयार्थ (जे यावि पुट्ठा पलिउंचयंति) जो लोग पूछने पर अपने गुरु का नाम छिपाते हैं, ( आयाणमट्ठ खलु वंचयंति) गुरु से ग्रहण किये हुए अर्थ से श्रोता को वंचित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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