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________________ सूत्रकृतांग सूत्र रुचि के अनुसार परम्पराविरुद्ध मनमानी सूत्र - व्याख्या करने वाले और (३) वीतराग सर्वज्ञ के ज्ञान में शंका प्रकट करके मिथ्याभाषण करने वाले । ये तीनों ही प्रकार के विरुद्ध रूपक (ह्निव) उत्तम गुणों के भाजन नहीं होते । ८६२ विसोहियं - यह वीतराग मार्ग का विशेषण है । विशोधित का अर्थ हैविविध प्रकार से शोधन किया हुआ, अर्थात् कुमार्ग की प्ररूपणा से बचाकर जो निर्दोष रखा गया है, तथा संशय विपर्यय - अनध्यवसाय से रहित एवं युक्ति-तर्क-नयप्रमाणसंगत है, अनेकान्तवादसापेक्ष है । वह मार्ग विविध वादों, मतों एवं मान्यताओं की एकान्त या विपरीत प्ररूपणाओं से वर्जित है। ऐसा मार्ग- सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्ररूप मोक्षमार्ग है । इस विशुद्ध शोधित मार्ग को यथार्थरूप से न समझकर अपने मताग्रह से ग्रस्त गोष्ठामाहिल, जामालि आदि निह्नव आचार्यों की परम्परागत धारणा प्ररूपणा को छोड़कर विपरीत प्ररूपणा करते हैं । दूसरे प्रकार के वे अयातातथ्य प्ररूपक हैं, जो अपने अहंकार में डूबकर स्वेच्छा से सूत्रों की स्वकल्पित व्याख्या में मोहित होकर आचार्य - परम्परागत अर्थ को तिलांजलि देकर उससे विरुद्ध अर्थ करते हैं, और दूसरों को भी वैसा ही अर्थ समझाते हैं । ऐसा करने वाले व्यक्ति मोहकर्म के उदय के कारण सूत्र के गम्भीर अभिप्राय को पूर्वापर ग्रन्थ सन्दर्भ के अनुसार समझने में समर्थ नहीं होते । अतः अपने को ज्ञानी और विद्वान मानकर मनमानी उत्सूत्रप्ररूपण करते हैं । मगर इस प्रकार अपनी मनपसन्द शास्त्र - व्याख्या करना महान् अनर्थ का कारण है । पहले निह्नव विपरीतसिद्धान्तप्ररूपक हैं, जबकि दूसरे निह्नव उत्सूत्र (विपरीत सूत्र व्याख्या) प्ररूपक हैं । हैं ये दोनों एक ही थैली के चट्टे बट्टे ! दोनों पूरे अहंकारी और अपने आपको ज्ञानी का अवतार मानने वाले हैं ? एक तीसरे प्रकार के निह्नव होते हैं, जो वीतराग सर्वज्ञ के ज्ञान में शंका करते हुए, उन पर कीचड़ उछालते हैं, उनके व्यक्तिगत विशुद्ध जीवन पर छींटाकशी करते हैं, वे मिथ्याभाषी सर्वज्ञोक्त आगम के प्रति शंका प्रगट करते हुए कहते हैं"यह आगम सर्वज्ञकथित हो ही नहीं सकता, अथवा इसका अर्थ दूसरा है या सर्वज्ञ ऐसा हो नहीं सकता, जिसमें कोई दोष न हो, जो पूर्णज्ञान से युक्त हो आदि ।" अथवा जो अपने पाण्डित्य के अभिमान में आकर झूठी बकवास करते हैं कि "मैं जैसा कहता हूँ, वही ठीक है, उसी तरह का अर्थ सम्यक है, अन्य सब अर्थ झूठे हैं, इसका ऐसा अर्थ हो ही नहीं सकता । यह गलत अर्थ है ।" जहाँ तक व्यक्तिगत विचारों का प्रश्न है, व्यक्ति किसी बात को समझने के लिए जिज्ञासापूर्वक कोई प्रश्न करे, शंका प्रस्तुत करे या समझने की इच्छा से उलटा-सीधा सवाल करे, यह तो क्षम्य है, किन्तु ऐसा न करके वह यथार्थ अर्थ या सत्य सिद्धान्त पर सीधा ही आक्षेप करे, उसे मिथ्या बताकर अपने मत या मान्यता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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