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________________ ८६४ सूत्रकृतांग सूत्र रखते हैं, अथवा आदान-मोक्ष से वे स्वयं वञ्चित रहते हैं, (ते असाहुणो इह साहुमाणी) वे वस्तुतः असाधु हैं, परन्तु इस जगत में अपने आपको साधु मानते हैं, (मायणि एसति अणंतघायं) वे मायावी पुरुष संसार में अनन्तबार घात को प्राप्त होते हैं। भावार्थ ___ जो व्यक्ति पूछने पर अपने ज्ञानदाता गुरु का नाम छिपाते हैं और दूसरे किसी बड़े आचार्य आदि का नाम बताते हैं, वे मोक्ष से अपने को वंचित करते हैं, अथवा गुरु से ग्रहण किए हुए अर्थ से श्रोता को वंचित करते हैं, वे वास्तव में साधु नहीं हैं, तथापि अपने आपको साधु मानते हैं। ऐसे कपटी (दम्भी) पुरुष संसार के दुःखों से अनन्तबार पीड़ित होते हैं। व्याख्या ऐसे मायावी लोग यथार्थ साधुता से दूर इस गाथा में ऐसे लोगों की मनोवृत्ति का जिक्र किया गया है, जो याथातथ्य तत्त्वों से अनभिज्ञ हैं, किन्तु जरा-सा ज्ञान पाकर गर्व से छलछला उठते हैं, अपनी शेखी बघारते रहते हैं। जब कोई उनसे पूछता है- 'आपने किस गुरु या आचार्य से ये शास्त्र पढ़े हैं ?' तब वे तपाक से अपने सच्चे गुरु का नाम छिपाकर दूसरे किसी महान प्रसिद्ध आचार्य का नाम ले लेते हैं। अथवा यों कह देते हैं कि मैंने स्वयं इन शास्त्रों का अध्ययन किया है। इस प्रकार ज्ञानगर्वोद्धत होकर अपने गुरु का नाम छिपाते हैं। अथवा जो स्वयं प्रमादवश आचरण में गलती करते हैं, किन्तु आलोचना के समय गुरु आदि के पूछने पर लोकनिन्दा के भय से झूठ बोलकर उसे छिपाते हैं। ऐसा करने वाले मायाचारी लोग अपने आपको मोक्ष से वंचित करते हैं, अथवा वे गुरु द्वारा बताये हुए सच्चे अर्थ से लोगों को वंचित रखते हैं। ऐसे मायाचार एवं दम्भ करने वाले धर्मध्वजी लोग वस्तुतः स्वयं साधु नहीं है, किन्तु अपने आपको साधु मानकर दोहरा पाप करते हैं। कहा भी है पावं काऊण सयं अप्पाणं, सुद्धमेव वाहरइ। दुगुणं करेइ पावं बीयं बालस्स मंदत्त ॥ अर्थात्--एक तो वह पाप करता है, फिर पूछने पर अपने को शुद्ध ही बताता है। इस प्रकार दुगना पाप करता है, यह उस जीव की दोहरी मूर्खता है। ऐसे मायाचारी जीव अनन्तकाल तक संसाररूपी अटवी में परिभ्रमण करते रहेंगे । 'अणंतघायं एसंति' का अर्थ है-अनन्तबार मृत्यु को प्राप्त होंगे। यह अयाथातथ्य का दुष्परिणाम है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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