SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 932
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ याथातथ्य : तेरहवाँ अध्ययन ८८७ मनुष्य आदि का जैसा मार्दव आदि स्वभाव है, तथा गोशीर्षचन्दन आदि द्रव्यों में जिसका जैसा स्वभाव है, उसे द्रव्यतथ्य कहते हैं । भावतथ्य नियम से ६ प्रकार के औदयिक आदि भावों में जानना चाहिए । कर्मों के उदय से जो उत्पन्न होता है, उसे औदयिकभाव कहते हैं । जैसे—कर्मों के उदय से जीव जो गति आदि का अनुभव करता है, वह औदयिकभाव है। जो कर्म के उपशम से उत्पन्न होता है, उसे औपशामिक कहते हैं अर्थात् कर्म का उदय न होना औपशमिकभाव है। एवं कर्मक्षय होने से आत्मा का जो गुण प्रकट होता है उसे क्षायिकभाव कहते हैं। वह अप्रतिपाती ज्ञान-दर्शन-चारित्ररूप है । जो कर्म के क्षय और उपशम से उत्पन्न होता है, वह क्षायोपशमिक है। वह अंशतः क्षयरूप और अंशतः उपशमरूप है । जो परिणाम से उत्पन्न होता है, वह पारिणामिकभाव है, वह जीवत्व, अजीवत्व, गव्यत्व आदि है । इन पाँचों भावों में से दो तीन आदि के संयोग से उत्पन्न भाव सान्निपातिक कहलाता है। इन्हीं ६ भेदों में भावतथ्य समाविष्ट हो जाता है। अथवा आत्मा में रहने वाला भावतथ्य चार प्रकार का है-ज्ञानतथ्य, दर्शनतथ्य, चारित्रतथ्य और विनयतथ्य । मति आदि ५ ज्ञानों के द्वारा जो वस्तु जैसी है, उसे उसी तरह समझना ज्ञानतथ्य है, शंका आदि अतिचारों से रहित जीवादि तत्त्वों पर श्रद्धा करना दर्शनतथ्य है, १२ प्रकार के तप और १७ प्रकार के संयम का शास्त्रोक्त रीति से अच्छी तरह आचरण--पालन करना चारित्रतथ्य है तथा ४२ प्रकार का विनय, जो कि ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप और औपचारिक है, उसकी यथायोग्य साधना-आराधना (क्रिया) करना विनयतथ्य है। इन ज्ञान आदि का योग्य-रीति से आराधन-आचरण न करना अतथ्य है । यहाँ भावतथ्य का प्रसंग है। अथवा प्रशस्त और अप्रशस्त भेद से भावतथ्य दो प्रकार का है । यहाँ प्रशस्त भावतथ्य का अधिकार है । नियुक्तिकार की दृष्टि में प्रशस्त भावतथ्य का मतलब है-जिस प्रकार से और जिस रीति से सत्र बनाये गये हैं, उसी तरह से उनके अर्थ की व्याख्या करना और उसी तरह से उनका अनुष्ठान करना । अर्थात्----जैसा सिद्धान्तसूत्र है, तदनुसार वैसा ही आचरण यानी चारित्र हो, और वही अनुष्ठान करने योग्य है, उसी को याथातथ्य कहते हैं। अथवा प्रस्तुत प्रसंग में जो विषय वर्णनीय है, यानी जिस विषय को लेकर उक्त सूत्र रचित है, उस विषय की ठीक-ठीक व्याख्या करना, या उस विषय को संसार से पार करने में कारण बताकर उसकी प्रशंसा करना याथातथ्य है । आशय यह है कि जिस दृष्टि या रीति से सूत्रों की रचना की गई है, उनकी व्याख्या यदि उसी तरह की जाय और उसी तरह उसको आचरण में क्रियान्वित किया जाये तो वे जीव को संसारसागर से पार करने में समर्थ होते हैं । इसलिए वह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy