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________________ याथातथ्य : तेरहवाँ अध्ययन अध्ययन का संक्षिप्त परिचय बारहवें समवसरण अध्ययन की व्याख्या की जा चुकी है। अब तेरहवें अध्ययन की व्याख्या प्रस्तुत की जा रही है । बारहवें अध्ययन में परमतवादियों के मत का निरूपण और उनके एकान्तमतवाद का खण्डन भी किया गया है, परन्तु वह खण्डन यथार्थ (सत्य) वचन के द्वारा होता है, इसके लिए 'याथातथ्य' नामक यह अध्ययन प्रस्तुत किया जाता है। किसी मत, सिद्धान्त और सूत्रवचन का अर्थ और उसकी व्याख्या सुधर्मास्वामी से लेकर अब तक आचार्यों की परम्परानुसार युक्तिसंगत और मोक्षमार्गपरक यथार्थ रूप से किया जाय, उसका नाम याथातथ्य है। इस अध्ययन में यही बताया गया है। इसका प्राकृत नाम है-आहत्तहीय, जिसका संस्कृत में रूपान्तर होता है-याथातथ्य । इसमें खासतौर से विनीत-अविनीत शिष्यों के गुणावगुणों पर प्रकाश डाला गया है। अभिमानी और सरल, क्रोधी और शान्त, कपटी और सरल, लोभी और निःस्पृह शिष्य कैसे होते हैं, उनका व्यवहार कैसा होता है ? यह भी बताया गया है । धर्म, समाधि, मार्ग और समवसरण नामक पूर्वअध्ययनों में जो वस्तु सत्य और यथार्थ तत्त्व बताई गई है, तथा प्रतिवादियों के जो मत या तत्त्व असत्य और सिद्धान्तविरुद्ध है, उनका भी प्रतिपादन संक्षेप में किया गया है। याथातथ्य शब्द का निर्वचन ___यथातथा' शब्द से भावप्रत्यय लगकर 'याथातथ्य' शब्द बनता है। नियुक्तिकार ने पहले के 'यथा' शब्द को छोड़कर पिछले 'तथा' शब्द का निक्षेप बताया है । अथवा जो याथातथ्य है, वही तथ्य है। अर्थात् वस्तु के यथार्थ स्वभाव को तथ्य कहते हैं । जो वस्तु जैसी है, उसे वैसी ही कहना तथ्य है । और याथातथ्य का भी यही अर्थ है। इस दृष्टि से 'तथ्य' शब्द के ४ निक्षेप होते हैं। नामतथ्य और स्थापनातथ्य तो सुगम हैं । सचित्तादि पदार्थों में से जिस पदार्थ का जैसा स्वभाव या स्वरूप है, उसे द्रव्य की प्रधानता को लेकर 'द्रव्यतथ्य' कहते हैं। जैसे जीव का लक्षण उपयोग है, पृथ्वी का लक्षण काठिन्य है, जल का लक्षण द्रवत्व है । अथवा जिस ८८६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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