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समवसरण : बारहवाँ अध्ययन
मरणाभिकखी) तथा जीने और मरने की आकांक्षा न करता हुआ साधु ( आयाणगुत्ते ) सयम से गुप्त - सुरक्षित और ( वलयाविमुक्के) माया से विमुक्त रहित होकर विचरण करे |
भावार्थ
साधु मनोहर शब्द और रूप में आसक्त न हो, तथा अमनोज्ञ गन्ध और रस पर द्वेष न करे एवं वह जीने या मरने की इच्छा न करे, किन्तु संयम से अपने को सुरक्षित और माया से रहित होकर विचरण करे ।
व्याख्या
समवसरण के योग्य क्रियावादी साधु क्या करे ?
क्रियावादी साधु को सम्यक्वाद जानकर क्या करना चाहिए ? यह इस गाथा में बताया गया है। वास्तव में जब साधक क्रियावादी होता है तो आत्मवादी तो वह स्वतः ही होता है । आत्मवादी का मतलब सम्यक् ज्ञान सहित अध्यात्म से युक्त है। आत्मवादी शुद्ध आत्मा या आत्म-स्वभाव में जब रमण करता है तो उसके सामने इन्द्रियाँ, मन, शरीर, आदि आत्मबाह्य भौतिक पदार्थ रुकावट डालने आते हैं, जैसे सुन्दर रूप और मनोहर कर्णप्रिय शब्द सामने आए, इसी प्रकार अमनोज्ञ गन्ध और रस भी आ गए, साधक को उस समय झटपट फैसला करना होगा और इन पर पूर्व-संस्कारवश आने वाले राग और द्वेष, आसक्ति और घृणा को तुरंत मन से निकाल देना होगा और शुद्ध आत्मा का चिन्तन करना होगा ।
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इन विषयों में लुभायमान होकर असंयमी जीवन जीने की आकांक्षा न करे, तथा परीषहों और उपसर्गों से पीड़ित होने पर मरने की भी इच्छा न करे। बल्कि जीवन और मृत्यु के प्रति समभावी रहकर साधु केवल आत्म-भावों में रमण करे । संयम (सम्यज्ञान-दर्शन- चारित्ररूप ) में निष्ठा रखकर मायारहित होकर मोक्षमार्ग में पुरुषार्थ करे | आदान संयम को कहते हैं । क्योंकि मोक्षार्थी पुरुष के लिए आदान ग्रहण करने योग्य वस्तु संयम ही है। उसके द्वारा अपनी आत्मा को विषय- कषायों से गुप्त - सुरक्षित रखे, बचाए । अथवा मिथ्यात्व आदि द्वारा जो ग्रहण किया जाय उसे — कर्म को भी आदान कह सकते हैं । वह आठ प्रकार का है । साधु उन्हें ( कर्मों को ) ग्रहण करने में मन-वचन-काया से गुप्त और पाँच समिति से युक्त होकर रहे । भाववलय माया को कहते हैं, उससे भी साधु मुक्त रहे ।
'त्ति बेमि' शब्दों का अर्थ पूर्ववत् है ।
सूत्रकृतांगसूत्र का बारहवाँ समवसरण नामक अध्ययन अमर सुखबोधिनी व्याख्या सहित सम्पूर्ण |
॥ समवसरण नामक बारहवाँ अध्ययन समाप्त ॥
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