________________
सूत्रकृतांग सूत्र
सुख है या उसके कारण हैं, उन्हें यानी पुण्य-पाप को वह जानता है । आशय यह है कि वह क्रियावादी साधक कर्मबन्ध एवं कर्मक्षय के कारणों एवं निवारण के उपायों को वह भली भाँति जानता है । कारण यह है कि जितने भी और जिस प्रकार के पदार्थ- संसार प्राप्ति के कारण हैं, उतने ही उनसे विपरीत पदार्थ मोक्ष प्राप्ति के हेतु हैं । इत्यादि जो जानता है, और जो इन सबको भली-भाँति हृदयंगम करके दूसरों के गले उतार देता है, उन्हें भली-भाँति समझा सकता है, वही वस्तुतः सच्चा क्रियावादी है । यहाँ इन दो गाथाओं द्वारा शास्त्रकार ने जीवादि नौ ही तत्त्वों का ग्रहण कर लिया है । 'जो आत्मा को जानता है' यह कहकर जीव पदार्थ, लोक कहकर अजीव पदार्थ, तथा गति, अनागति और शाश्वत आदि कहकर इन्हीं का स्वभाव बताया गया है । आस्रव और संवर का नामोल्लेख किया है । दुःख कहकर बन्ध और पुण्य-पाप सूचित किए गए हैं। क्योंकि ये तीनों ही दुःख के कारण है । निर्जरा का नाम भी लिया गया है । मोक्ष भी कहा गया है । इस प्रकार मोक्ष के लिए उपयोगी तत्त्वों के अस्तित्व का स्वीकार करने से ही क्रियावाद सिद्धान्त स्वीकृत होता है । जो व्यक्ति इन तत्त्वों को, विशेषतः आत्मवाद, लोकवाद, कर्मवाद को जानता मानता है, वही वस्तुतः क्रियावाद को जानता मानता है ।
नैयायिक, वैशेषिक, बौद्ध, मीमांसक और लोकायतिक आदि सभी के मान्य तत्त्व युक्तिविरुद्ध, प्रमाणविहीन और कई लोकविरुद्ध हैं, इसलिए क्रियावाद के उपयुक्त वे कसौटी में खरे नहीं उतरते । इसीलिए उनके वाद को सम्यक्वाद नहीं कहा गया है ।
८८४
अब शास्त्रकार सम्यकवाद को जानकर किस प्रकार की क्रिया करे ? यह अन्तिम गाथा में बताते हैं-
मूल पाठ
सद्द सूरूवे असज्ज माणो, गंधेसु रसेसु अदुस्समाणे 1
णो जीवियं णो मरणाभिकंखी, आयाणगुत्ते वलया विमुक्के ||२२||
1
त्ति बेमि ॥
संस्कृत छाया शब्देषु रूपेष्वसज्जमानो, गन्धेसु रसेसु चाद्विषन् 1 जीवितं नो मरणाभिकांक्षी, आदानगुप्तो वलयाद्विमुक्तः ॥ २२॥ इति ब्रवीमि ॥
अन्वयार्थ (सद्द सुरूवेसु असज्जमाणो ) शब्द और रूप में आसक्त न होता हुआ साधक ( गंधेसु रसेसु अदुस्समाणे ) अमनोज्ञ गन्ध और रस में द्व ेष न करे । ( णो जीवियं, जो
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org