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समवसरण : बारहवाँ अध्ययन
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आत्मज्ञ पुरुष ही जीवादि पदार्थों का अस्तित्व स्वीकार करता है । नृत्यशाला में दोनों हाथ कमर पर रखकर खड़े हुए पुरुष के समान १४ रज्ज्वात्मक इस चराचर विश्व को वह जानता है । अलोक ( अनन्त आकाशास्तिकायरूप ) को जानता है । जीवों की गति आगति को जानता है । यानी ये नारक, तिर्यंच, मनुष्य और देव कहाँ से आए हैं ? अथवा किन-किन कर्मों को करने से जीव नरक, स्वर्ग, देव, मनुष्य आदि गतियों एवं योनियों में उत्पन्न होते हैं । कहाँ जाकर जीव वापिस नहीं लौटता ? कर्मों के सर्वथा क्षय से जीव को कौन सी स्थिति प्राप्त होती है, आत्मा की शुद्ध अवस्था कौन-सी और कैसी है ? मोक्ष जाने के उपाय क्या हैं ? सम्यग्दर्शनादि मोक्ष का मार्ग क्यों है ? इत्यादि जो जानता - देखता है, इस प्रकार आगति के साथ वह अनागति (सिद्धि) को भी जानता है । द्रव्यार्थिक नयानुसार सब पदार्थों को नित्य एवं पर्यायार्थिक नय के अनुसार सबको अनित्य यानी उभयस्वरूप जानता है । निर्वाण को शाश्वत और संसार को अशाश्वत क्यों कहते हैं, इन दोनों को जानता है । निर्वाण शाश्वत इसलिए है कि वहाँ से फिर लौटकर संसार में आना नहीं होता, और संसार अशाश्वत इसलिए है कि नरक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देवगति में संसारी जीव इधर से उधर कर्मवश भ्रमण करता रहता है। वह नरकादि में जन्मरूप जाति को जानता है । आयुष्य के क्षयरूप मरण को भी जानता है, एवं जीवों के उपपातनरक और देवलोक के जन्म को वह जानता है । यहाँ जन्म का विचार करने पर जीवों की योनि (उत्पत्तिस्थान), जो कि २७ प्रकार की हैं, उसको भी जानना चाहिए । तिर्यञ्च और मनुष्य का मरण होता है, देवों का च्यवन, भवनपति व्यन्तर और नारकों की उद्वर्तना होती है, इसको भी भली भाँति जान लेना चाहिए । यो आत्मवाद को वह भली-भाँति जानता है ।
साथ ही जीवों को कर्म कौन करता - कराता है, फल कौन भोगता है ? फल भुगताने वाला कौन है ? इन सब प्रश्नों का यथार्थ समाधान पाकर क्रियावादी साधक यह जानता है कि नरक, तिर्यञ्च, मनुष्य आदि गतियों में जीवों को नाना प्रकार की पीड़ा होती है । क्योंकि जो प्राणी पापकर्म करते हैं, वे अपने कृतकर्मों के अनुसार फल भोगते हैं । कर्मवश नरक आदि स्थानों में जाकर वे जीव जन्म, जरा, मरण, रोग, शोक आदि से उत्पन्न नाना प्रकार की शारीरिक-मानसिक पीड़ा को भोगते हैं । सर्वार्थसिद्ध देवलोक से लेकर सातवीं नरक तक जितने प्राणी हैं, वे सब कर्म से युक्त हैं । इनमें जो सबसे अधिक गुरुकर्मी हैं, वे अप्रतिष्ठान नामक नरक- भूमि में जाते हैं । इस कर्मवाद को जो विश्वासपूर्वक जानता - मानता है । इसके अतिरिक्त आठ प्रकार के कर्म जिनके द्वारा आते हैं, उन आस्रवों को जानता है, उनके कारणों और रोकने के उपायों (संवरों) को भी भेद-प्रभेद एवं कारणों सहित जानता है । वह असातावेदनीयके उदयरूप दुःख या उसके कारणों को, तथा उसके विपरीत जो
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