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त्रकृतांग सूत्र
याथातथ्य होता है, इसके विपरीत यदि सूत्र का अर्थ और व्याख्या ठीक-ठीक न की जाए, या भलीभाँति तदनुसार अनुष्ठान न किया जाए अथवा उसे संसार का कारण कहकर उसकी निन्दा की जाए तो वह याथातथ्य नहीं होता । उदाहरण के तौर पर श्री सुधर्मास्वामी, जम्बूस्वामी और आर्यरक्षित आदि महान् आचार्यों की परम्परा और धारणा से सूत्र का जो व्याख्यान चला आ रहा है, उसी तरह से उसका व्याख्यान करना याथातथ्य है । किन्तु परम्परागत सूत्र - व्याख्यान के विपरीत मनमाना, कुतर्क मद से विकृत, कपोलकल्पित सूत्र व्याख्यान करना अयाथातथ्य है । कोई अपने को पण्डित और ज्ञानी मानकर मिथ्यात्व के कारण दृष्टिविपर्यास होने से सर्वज्ञकथित वस्तुतत्त्व को अयथार्थ -असत्य ठहराकर और तरह से व्याख्या करता है, वह अयाथातथ्य है । जैसे— जो वस्तु 'की जा रही है', उसे 'की गई' नहीं कहना चाहिए, किन्तु जो ' की जा चुकी है' उसे ही 'की गई' कहना चाहिए, इस प्रकार की व्याख्या या प्ररूपणा भगवान महावीर के 'कडेमाणे कडे' जो क्रियमाण है, उसे लोक व्यवहार में कृत कहना ( व्यवहारनय की दृष्टि से ) सिद्धान्त से विरुद्ध है ---- यह अयाथातथ्य है । लोकव्यवहार में भी यह देखा जाता है कि किसी व्यक्ति के कानपुर जाने के लिए रवाना हो जाने पर उसके बारे में किसी से पूछे जाने पर वह यही कहता है कि वह व्यक्ति कानपुर गया। हालांकि वह अभी तक कानपुर पहुँचा नहीं है । परन्तु जो मनुष्य जरा से ज्ञान के मद में आकर सर्वज्ञोक्त सिद्धान्त की अंशमात्र भी विपरीत व्याख्या करता है, वह संयम और तप में चाहे जितना उद्यम करता हो, किन्तु अयाथातथ्य प्ररूपणा के फलस्वरूप शारीरिक, मानसिक दुःखों से शीघ्र छुटकारा नहीं पा सकता । इसलिये ' याथातथ्य' अध्ययन के द्वारा समस्त सुविहित साधुओं को यही प्रेरणा दी गई है कि स्वयं के सिद्धान्तज्ञाता होने का अभिमान या श्रुतमद छोड़कर नम्र बनकर सर्वज्ञोक्त सिद्धान्तों का आशय अधिकृत अधिकारी आचार्यों से समझकर यथार्थरूप से उनकी व्याख्या करे । प्रत्येक सूत्र के अर्थ, भावार्थ, परमार्थ, व्याख्या आदि को भलीभाँति समझकर निरूपण - प्ररूपण करना, तथा तदनुसार आचरण करना ही याथातथ्य अध्ययन का हार्द है ।
इस अध्ययन की क्रमप्राप्त प्रथम गाथा इस प्रकार है
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मूल पाठ आहत्तहीयं तु पवेइयस्सं, नाणप्पकारं परिसस्स जातं
सओ अ धम्मं, असओ असीलं, संति असंति करिस्सामि पाउं ॥ | १ || संस्कृत छाया
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याथातथ्यं तु प्रवेदयिष्यामि, ज्ञानप्रकारं पुरुषस्य जातम् सतश्च धर्ममसतश्चाशीलं शान्तिमशान्ति च करिष्यामि प्रादुः || १ ||
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