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समवसरण : बारहवाँ अध्ययन
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क्रियावाद का खण्डन करने हेतु कहते हैं-'विण्णत्तिधारा य हवंति' अन्य लोग केवल ज्ञानमात्र से वीर बनते हैं, ज्ञान बघारते हैं, किन्तु ज्ञानमात्र से अभीष्ट अर्थ की प्राप्ति नहीं होती। जो ज्ञानपूर्वक क्रिया करता है, वही वस्तुतः वीर है। इस प्रकार का वीर पुरुष ही भावसमवसरण के योग्य होता है। यह वास्तविक क्रियावादी का स्वरूप बताया गया है।
मूल पाठ डहरे य पाणे वुड्ढे य पाणे, ते आत्तओ पास इ सव्वलोए । उव्वेहती लोगमिणं महंतं, बुद्धेऽपमत्त सु परिव्वएज्जा ॥१८॥ जे आयओ परओ वावि णच्चा, अलमप्पणो होइ अलं परेसि । तं जोइभूयं च सया वसेज्जा, जे पाउकुज्जा अणुवीइ धम्मं ॥१६॥ अत्ताण जो जाणइ जो य लोगं, गइं च जो जाणइ णागइं च । जो सासयं जाण असासयं च, जाइं च मरणं च जणोववायं ॥२०॥ अहोऽवि सत्ताणविउट्टणं च, जो आसवं जाणइ संवरं च । दुक्खं च जो जाणइ निज्जरं च, सोभासिउमरिहइ किरियवायं ॥२१॥
संस्कृत छाया दहराश्च प्राणाः वृद्धाश्च प्राणास्तानात्मवत् पश्यति सर्वलोके । उत्प्रेक्षते लोकमिम महान्तं, बुद्धोऽप्रमत्तेषु परिव्रजेत्
॥१८॥ य आत्मनः परतोवाऽपि ज्ञात्वाऽलमात्मनो भवत्यलं परेषाम् ।। तं ज्योतिर्भूतञ्च सदा वसेद् ये प्रादुष्कुर्युरनुविचिन्त्य धर्मम् ॥१९।। आत्मानं यो जानाति, यश्च लोक, गति यो जानात्यनागतिम् च । यः शाश्वतं जानात्यशाश्वतं च, जातिं च मरणच जनोपपातम् ॥२०॥ अधोऽपि सत्त्वानां विकुट्टनां च, य आश्रवं जानाति संवरं च । दुःखं च यो जानाति निर्जरां च, स भाषितुमर्हति क्रियावादम् ॥२१।।
अन्वयार्थ (सव्वलोए) पंचास्तिकाययुक्त समस्त लोक में (डहरे य पाणे वुड्ढे य पाणे) छोटे-छोटे कुन्थु आदि भी प्राणी हैं और बड़े-बड़े स्थूलकाय भी प्राणी हैं (ते आत्तओ पासइ) सुसाधु उन्हें अपनी आत्मा के समान देखता-जानता है। (इणं लोगं महंत उव्वेहती) वह इस प्रत्यक्ष दृश्यमान 'यह विशाल लोक कर्मवश दुःखरूप है', ऐसा विचार करे, (बुद्ध अपमत्त सु परिव्वएज्जा) इस प्रकार समझता हुआ तत्त्वदर्शी पुरुष अप्रमत्त साधुओं के निकट जाकर दीक्षा धारण करे ॥१८॥
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