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सूत्रकृतांग सूत्र
या विषय एवं स्त्री के वशीभूत होकर कदापि उत्तम अनुष्ठान नहीं करते, वे इस कीचड़ में फंसकर आकाशलोक या पृथ्वीलोक में बार-बार जन्म-मरण करते हैं, अथवा वे वेषमात्र से प्रव्रज्याधारी हैं किन्तु विरति से रहित होने से राग-द्वेषयुक्त होकर उभयभ्रष्ट होकर बार-बार जन्म-मरण करते रहते हैं।
कई लोग यह सोचते हैं कर्म कर्म से समाप्त होते हैं, परन्तु तीर्थंकरों का यह सिद्धान्त है कि अज्ञानी जीव ही ऐसा सोचते हैं। पापकर्मों में वे गहरे लिप्त होते हैं, इस कारण अपने पूर्व-पापों को क्षीण नहीं कर सकते, नये पापकर्म और बाँधते रहते हैं। जो धीर और आरम्भ-परिग्रह से विरक्त होते हैं, वे ही अपने आस्रवों को रोककर पाप-कर्मक्षय करते हैं। जैसे उत्तम वैद्य चिकित्सा के द्वारा रोग निवारण करता है, वैसे ही वीरपुरुष आस्रवों को रोककर अंशतः शैलेशी अवस्था में कर्मों का क्षपण करते हैं। प्रज्ञोन्नत पुरुष परिग्रह का सर्वथा त्याग कर लोभ का उल्लंघन कर जाते हैं, अथवा लोभ और भय से वे परे हो जाते हैं । अथवा वे लोभ से परे होने के कारण संतोषी हैं, और ऐसे परम-संतोषी पुरुष आत्मतृप्त, आत्मरत, आत्मतुष्ट हो जाते हैं, वे पापकर्म स्वप्न में भी नहीं करते। ऐसे पुरुष या तो वीतराग हैं, या यदृच्छालाभ संतुष्ट हैं।
जो पुरुष लोभातीत हो जाते हैं, वे वीतराग होते हैं । वे पंचास्तिकायात्मक इस प्राणीलोक के अतीत, अनागत तथा वर्तमान के समस्त दुःखों या वृत्तान्तों को जानते हैं। वे विभंगज्ञानी की तरह विपरीत रूप से नहीं, किन्तु जिसका जंसा सुखदुःख आदि है, उसे वे वैसा ही देखते हैं। शास्त्रकार कहते हैं-'णेतारो अन्नेसि अणन्नणेया ।' अर्थात्-वे केवलज्ञानी या चतुर्दशपूर्वधर परोक्षज्ञानी संसारसागर को पार करना चाहते हुए दूसरे भव्यजीवों को मोक्ष में पहुँचा देते हैं, अथवा वे उनके मार्गदर्शक बनते हैं, सदुपदेश देते हैं, परन्तु उनका कोई मार्गदर्शक (नेता) नहीं होता, वे स्वयंबुद्ध होते हैं। इसलिए उन्हें किसी दूसरे पुरुष से तत्त्वज्ञान प्राप्त करने की अपेक्षा नहीं रहती। अथवा हित-प्राप्ति और अहित-त्याग के विषय में उनका कोई नेता नहीं होता। वे स्वयंबुद्ध, तीर्थकर, गणधर आदि संसार अथवा संसार के कारणरूप कर्मों का अन्त करते हैं ।
ऐसे स्वयंबुद्ध महान् पुरुष पापकर्म से विरक्त तथा ज्ञेय पदार्थों को जानने वाले वे प्रत्यक्षदर्शी या परोक्षदर्शी पुरुष प्राणिहिंसा की आशंका से न तो स्वयं पाप करते हैं और न दूसरों से कराते हैं। वे प्राणातिपात आदि १८ हो पापस्थानों से सदा विरक्त-विरत होकर संयम पालन में प्रयत्नशील रहते हैं। वे धीर पुरुष हेय-ज्ञय-उपादेय को भली-भाँति जानकर निःशंक मार्ग, जो जिनवरकथित हैं, उसे अपनाकर कर्म-विदारण करते हैं। वे ही वीर हैं, धीर हैं। परीषह-उपसर्ग को सहने में धीर-वीर हैं। इसीलिए शास्त्रकार अन्त में एकान्त ज्ञानवाद एवं एकान्त
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