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समवसरण : बारहवां अध्ययन
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में यत्नशील रहते हैं। (एगे विण्णत्तिधीरा य हवंति) परन्तु कई अन्यदर्शनी अल्प पराक्रमी जीव ज्ञानमात्र से वीर बनते हैं, आचरण से नहीं ॥१७॥
भावार्थ वे तीर्थंकर आदि इस लोक में नेत्र के समान हैं, तथा वे धर्मनायक हैं, लोक में सर्वप्रधान हैं। वे विविध जनता को कल्याणमार्ग की शिक्षा देते हैं। चौदह रज्जु-प्रमाण या पंचास्तिकायरूप लोक जिस अपेक्षा से शाश्वत (नित्य) है, उस अपेक्षा से वे शाश्वत कहते हैं अथवा मिथ्यात्वादि जिन-जिन कारणों से जिस-जिस प्रकार से संसार प्रगाढ़-स्थायी होता है, उसे बताते हैं, और कहते हैं-हे मानवो ! लोक वह है, जिसमें प्राणिगण निवास करते हैं ।।१२।।
राक्षस यमपूरवासी, देवता, गन्धर्व, आकाशगामी तथा पथ्वी पर रहने वाले प्राणी सभी बार-बार भिन्न-भिन्न गतियों में भ्रमण करते हैं ॥१३॥
तीर्थंकर आदि महापुरुषों ने जिस संसार को स्वयम्भूरमणसमुद्र के जल के समान अपार एवं दुस्तर कहा है, अत: इस गहन संसार को दुर्मोक्ष (दुःख से त्याज्य) समझो। विषयों तथा स्त्रियों की आसक्ति में फंसे हुए जीव इस जगत में स्थावर और जंगम दोनों प्रकार से एक गति से दूसरी गति में भ्रमण करते रहते हैं ।।१४।। ____ अज्ञानी जीव अशुभ कर्म करने के कारण अपने पापों का नाश नहीं कर सकते, मगर धीर पुरुष कर्मों का निरोध (आस्रवों का निरोध) करके अशुभकर्मों को छोड़कर अपने कर्मों का क्षय करते हैं। बुद्धिमान पुरुष लोभ से दूर रहते हैं और संतोषी होकर पापकर्म नहीं करते ॥१५॥
वे वीतरागप्रभू जीवों के भूत, वर्तमान और भविष्य के समस्त वृत्तान्तों को यथावत् जानते हैं । वे सबके नेता-मार्गदर्शक हैं, परन्तु उनका कोई नेता नहीं है। वे ज्ञानीपूरुष संसार का अन्त करते हैं ।।१६।।
पापकर्म से विरक्ति (नफरत) करने वाले तीर्थकर, गणधर आदि प्राणियों के वध की आशंका से स्वयं पाप नहीं करते और न ही दूसरों से कराते हैं, किन्तु परीषह-उपसर्गसहन में धीर, कर्म विदारण में वीर वे पुरुष सदा पापानुष्ठान से निवृत्त रहकर यत्नपूर्वक संयम में लीन रहते हैं। परन्तु अन्यतीर्थिक ज्ञानमात्र से वीर बनते हैं, आचरण से नहीं ।।१७।।
व्याख्या
धर्मनायक तीर्थंकर आदि और उनकी शिक्षाएँ बारहवीं गाथा से लेकर सत्रहवीं गाथा तक शास्त्रकार ने मार्गदर्शक महापुरुषों का स्वरूप तथा उनके समवसरणात्मक उपदेशों का निरूपण किया है ।
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