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सूत्रकृतांग सूत्र प्रजाओं-जनता को कल्याण के मार्ग की शिक्षा देते हैं । (तहा तहा लोए सासयमाहु) इस चतुर्दश-रज्ज्वात्मक या पंचास्तिकायरूप लोक में जो-जो वस्तु जिस-जिस रूप में अवस्थित है, उसे शाश्वत कहते हैं। अथवा प्राणी जिस-जिस (मिथ्यात्वादि) कारण से जिस-जिस संसार में शाश्वत (स्थिर ...मजबूत) होते जाते हैं, उसे भी उन्होंने उसी प्रकार से बताया है । (माणव ! जंसी पया संपगाढा) हे मनुष्यो ! जिस लोक में प्रजा (नारक, तिर्यंच, मनुष्य और देव) व्यवस्थित रूप से रहती है । १२॥
(जे रक्खसा वा जमलोइया वा) जो राक्षस हैं अथवा जो यमपुरी में निवास करते हैं, (जे वा सुरा गंधव्वा य काया) तथा जो चारों निकाय के देवता हैं, या जो गन्धर्व हैं या पृथ्वीकाय आदि षड्जीवनिकाय के हैं, (आगासगामी य पुढोसिया जे) तथा जो आकाशगामी हैं एवं जो पृथ्वी पर रहते हैं, (पुणो पुणो विपरियासुर्वेति) वे सब अपने किये हुए कर्मों के फलस्वरूप बार-बार विभिन्न गतियों में परिभ्रमण करते रहते हैं ॥१३॥
(जं ओहं सलिलं अपारगं आहु) तीर्थकरों ने तथा गणधरादि ने जिस संसार को स्वयम्भूरमण समुद्र के जलसमूह जैसा पार करने में अशक्य दुस्तर (अपार) कहा है। (भवगहणं दुमोक्खं जाणाहि) उस गहन संसार को दुर्मोक्ष (दुःख से छुटकारा पाया जा सके ऐसा) जानो, (जसी विसयंगणाहि विसन्ना) क्योंकि जिस ससार में मनुष्य पंचेन्द्रिय विषयों तथा ललनाओं की आसक्ति में फंस जाते हैं (दुहओ वि लोयं अणुसंचरंति) वे स्थावर और जंगम दोनों ही प्रकार से एक लोक से दूसरे लोक में भ्रमण करते हैं ॥१४॥
(बाला कम्मुणा कम्म न खति) अज्ञानी जीव पापकर्म करने के कारण अपने कर्मों का क्षय नहीं कर सकते, परन्तु (धीरा अकम्मुणा कम्म खति) धीरपुरुष आस्रवों को रोककर पापकर्म का क्षय कर देते हैं । (मेहाविणो लोभमयावतीता) बुद्धिमान् लोग लोभ से दूर रहते हैं । (संतोसिणो पावं नो पकरेति) और वे संतोषी होकर पापकर्म नहीं करते ।।१५।।
(ते लोगस्स तीय उप्पन्नमणागयाई तहागयाइं जाणंति) वे वीतरागपुरुष त्रसस्थावर जीवात्मक लोक के भूत, वर्तमान और भविष्य काल के वृत्तान्तों को यथार्थरूप से जानते हैं । (अन्नेसि नेयारो अणन्नणेया) वे दूसरे जीव के नेता (पथप्रदर्शक) हैं । उनका कोई नेता नहीं है । (ते बुद्धा अंतकडा भवंति) वे ज्ञानीपुरुष संसार का अन्त करते हैं ॥१६॥
(दुगुंछमाणा ते) पाप से घृणा करने वाले वे तीर्थङ्कर, गणधर आदि (भूताभिसंकाइ) प्राणियों के संहार की आशंका से, (णेव कुव्वंति ण कारवंति) स्वयं पाप नहीं करते हैं, और न दूसरों से भी कराते हैं। (धीरा सया जता विप्पणमंति) कर्म-विदारण करने में निपुण वे पुरुष सदा पाप के अनुष्ठान से दूर एवं संयमपालन
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