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________________ ८५६ सुत्रकृतांग सूत्र अतिशय ज्ञानी तीर्थकर, गणधर आदि महापुरुषों के पास मानवों का समवसरण (जमघट) लगता है, यद्यपि वह समवसरण (संगम) किसी स्वार्थ, लोभ या राग से प्रेरित होकर नहीं लगता, वह सिर्फ धर्मार्थी भव्यजनों या मुमुक्ष ओं का मेला या मिलन होता है, तीर्थकर आदि महापुरुष उस समवसरण (एकत्रित जनसमुह) के नेता होते हैं । नेता नेत्र के समान होते हैं। जैसे नेत्र योग्यदेश में स्थित पदार्थ को प्रकाशित कर देता है, वैसे ही ये धर्मनायक एवं नेत्ररूप महापुरुष समवसरण स्थित भव्यजनसमूह के समक्ष समस्त पदार्थों को प्रकाशित कर देते हैं। वे नायक हैं अर्थात् प्राणियों को सदुपदेश देकर मार्गदर्शक बनते हैं । मार्गदर्शक होने के कारण वे सर्वश्रेष्ठ माने जाते हैं। वे प्राणियों की आत्मा में निहित गुणों या शक्तियों को भावात्मक समवसरण के रूप में प्रस्तुत कर देते हैं, तथा ज्ञान-दर्शन-चारित्ररूप या ज्ञान-क्रियारूप भाव-समवसरणात्मक मोक्षमार्ग का यथार्थ उपदेश देते हैं, जिससे उत्तम भावों के समवसरण में विघ्न डालने वाले अनर्थों का निवारण हो सकता है, मोक्ष या सुगति को वह प्राप्त कर सकता है। तहा तहा सासयमाहुलोए'-चौदह रज्जप्रमाण या पंचास्तिकायरूप इस लोक में आत्मा, मोक्ष, धर्म या मोक्षमार्ग (सम्यग्दर्शनादिरूप) आदि जो शाश्वत तत्त्व हैं, जिनसे आत्मा का कल्याण हो सकता है, उसे यथातथ्यरूप से बताते हैं, अथवा प्राणिगण इस संसार में मिथ्यात्वादि जिन-जिन कारणों से ज्यों-ज्यों स्थिर-स्थायी (शाश्वत) होते जाते हैं, उसे भी वे बताते हैं। बात यह है कि मिथ्यात्व आदि को ज्यों-ज्यों वृद्धि होती जाती है, मनुष्य आस्रवों को रोकने या निर्जरा करने का प्रयत्न बिलकुल नहीं करता, महारम्भादि महापापों में रचा-पचा रहता है, त्यों-त्यों संसार की स्थायिता अधिकाधिक सुदृढ़ होती जाती है, तीर्थकर, आहारक आदि को छोड़कर सभी कर्मों का बन्ध होता जाता है। महारम्भादि चार कारणों से जीव नरकायु बाँधते हैं, तब तक संसार का उच्छेद नहीं होता, ज्यों-ज्यों रागद्वेष बढ़ता है. त्योंत्यों संसार बढ़ता है। ज्यों-ज्यों कर्मों का संचय होता जाता है, अथवा दुष्टमन, वचन, काया की प्रवृत्ति बढ़ती जाती है, त्यों-त्यों संसार की वृद्धि होती जाती है । यह संसार-वृद्धि ही देव-मनुष्य-नरक-तिर्यञ्चगतिरूप संसार में स्थायी निवास है। इसी बात को महापुरुष सम्बोधन करके कहते हैं- 'जंसी पया माणव ! संपगाढा ।' जब संसारवृद्धि होती जाती है तो इसी में प्राणी नारक-तिर्यञ्च-मनुष्य-देवरूप से रचा-पचा पड़ा रहता है। मनुष्यों को इसलिए सम्बोधित किया है कि मानव ही प्रायः इस उपदेश के योग्य होते हैं, वे ही संसारबन्धन को काट सकते हैं। __ आगे शास्त्रकार तीर्थंकरों के उपदेश का उल्लेख करते हुए कहते हैं कि वे प्राणी विभिन्न योनियों एवं गतियों में बार-बार परिभ्रमण करते रहते हैं । यहाँ प्राणियों के अलग-अलग नाम बताए हैं--व्यन्तरदेव जाति के राक्षस, यमलोक (नरक) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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