________________
समवसरण : बारहवां अध्ययन
८७१ (लोगं समिच्च) अपने-अपने अभिप्राय के अनुसार लोक को जानकर (तहा तहा एवमक्खंति) कर्मानुसार फल प्राप्त होना बताते हैं । (सयं कडं णन्नकडं च दुक्खं) वे यह भी कहते हैं कि दुःख अपने करने से होता है, दूसरों के करने से नहीं होता । (विज्जाचरणं पमोक्खं आहेसु) परन्तु तीर्थकरों ने ज्ञान और क्रिया से मोक्ष कहा है ।
भावार्थ __ शाक्यभिक्ष आदि श्रमण और ब्राह्मण आदि अपनी-अपनी मान्यतानुसार लोक को जानकर उस-उस क्रिया के अनुसार अमुक कर्मफल प्राप्त होना बताते हैं। तथा वे यह भी कहते हैं कि दुःख जीव का अपना ही किया हआ होता है, दूसरे का किया हुआ नहीं होता। परन्तु तीर्थंकरों ने ज्ञान और क्रिया दोनों से मोक्ष कहा है।
व्याख्या
एकान्तक्रियावादियों के रंग-ढंग अब शास्त्रकार एकान्त क्रियावादियों के मत का निरूपण करके उनके विचारों में कहाँ-कहाँ भूल है ? इसे बताते हैं। जो लोग ज्ञानरहित केवल दीक्षा आदि क्रियाओं से मोक्ष प्राप्ति आदि मानते हैं, वे यह कहते हैं कि 'माता, पिता, आदि सब हैं, शुभकर्म का फल भी मिलता है।' वे ऐसा इस आधार पर कहते हैं कि कोरी क्रिया से ही सब कार्य सिद्ध होते हैं । इस प्रकार अपनी मान्यतानुसार वे स्थावर जंगमरूप लोफ को जानकर यह कहते हैं कि 'हम ही वस्तुस्वरूप को यथार्थरूप से जानते हैं।' इस प्रकार की गर्वोक्ति के साथ वे कहते हैं- 'सब पदार्थ हैं ही,' इस प्रकार एकान्तरूप समस्त वस्तु के अस्तित्व का कथन करते हैं, लेकिन वस्तु कथंचित् नहीं भी है, ऐसा नहीं कहते । उनका कहना है कि 'जीव जैसी-जैसी क्रियाएँ करता है, तदनुसार ही उसे नरक-स्वर्ग आदि कर्मफल प्राप्त होता है।' वे तथाकथित श्रमण और ब्राह्मण क्रियामात्र से ही मोक्ष प्राप्ति मानते हैं।
उनका कथन यह भी है कि संसार में सुख-दुःख आदि जो कुछ भी होता है, वह सब अपना किया हुआ होता है; काल, ईश्वर आदि दूसरों के द्वारा किया हुआ नहीं होता । जो क्रिया को नहीं मानते, उनके मत में ये बातें घटित नहीं हो सकतीं। क्योंकि उनके मत से आत्मा क्रियारहित होने से बिना किये सुख-दुःख की प्राप्ति सम्भव नहीं है। यदि क्रिया बिना ही किसी को सुख-दुःख मिलने लगें तो वहाँ कृतनाश और अकृतभ्यागम दोष होंगे।
क्रियावादियों के इस कथन के सम्बन्ध ये जैनाचार्य कहते हैं-त्रियावादियों का कथन किसी अंश तक ठीक है कि क्रिया से भी मोक्ष होता है, तथा आत्मा और सुख आदि हैं, परन्तु वे सर्वथा हैं ही, इस प्रकार की एकान्तप्ररूपणा यथार्थ नहीं है। यदि एकान्तरूप से उनका अस्तित्व है ही तो वे कथंचित् नहीं हैं, यहबात नहीं
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org