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________________ ८७० सूत्रकृतांग सूत्र इसका उत्तर देते हुए जैनाचार्य कहते हैं- शास्त्रों का भलीभाँति अध्ययन किया जाए और सोच-विचार कर कहा जाए तो निमित्तादि के कथन में फर्क नहीं पड़ता। शास्त्राभ्यासियों में जो ६ कोटि के न्यूनाधिक ज्ञानी व्यक्ति बतलाये गये हैं वे शास्त्रज्ञान की न्यूनाधिकता की अपेक्षा से नहीं, अपितु अध्येता पुरुषों के क्षयोपशम की न्यूनाधिकता के कारण से बताये गये हैं। इससे शास्त्रज्ञान को न्यूनाधिक और झठा मानना ठीक नहीं है। प्रमाणाभास में फर्क पड़ने से सच्चे प्रमाण को मिथ्या कहना या उसमें शंका करना युक्त नहीं है, क्योंकि मशक में धुंआ भरकर उसका मुंह बाँधकर कोई व्यक्ति उसे किसी जगह ले जाकर खोले और कहे कि देखो इस मशक में धुंआ है, किन्तु आग नहीं है, इसलिए जहाँ-जहाँ धुंआ है, वहाँ-वहाँ अग्नि है, यह अनुमानप्रमाण झूठा है, यह कहना भी मिथ्या है। प्रमाता पुरुष के प्रमाद से प्रमाण में दोष बताना ठीक नहीं हैं । इसी तरह निमित्तादि शास्त्र का फल भी भलीभांति विचार करके कहा जाए तो वह सत्य होता है। ____ शुभ-अशुभ, छींक, शकुन आदि निमित्तों के बल से जो शुभ-अशुभ फल की विपरीतता देखी जाती है, वह भी बीच में उसके छींक या शकुन के विपरीत दूसरे निमित्त मिल जाने पर होता है। सुनते हैं- बुद्ध ने भी अपने शिष्यों को बुलाकर एक बार कहा था- "इस देश में १२ वर्ष का दुष्काल पड़ेगा, इसलिए तुम लोग दूसरे देशों में चले जानी।" यह सुनकर जब उनके शिष्य जाने लगे तो फिर उन्हें बुलाकर बुद्ध ने कहा- “अब तुम्हें दूसरे देशों में जाने की जरूरत नहीं, क्योंकि आज ही यहाँ एक महासत्वशाली पुण्यवान पुरुष का जन्म हुआ है। अतः उसके प्रभाव से इस देश में सुभिक्ष होगा।” तथागत बुद्ध की इस उक्ति से स्पष्ट जान पड़ता है कि पहले शकुन या निमित्त से विपरीत निमित्त या शकुन यदि बाद में होता है तो पहले वाले शकुन या निमित्त के फल में फर्क हो जाता है। इसलिए निमित्तशास्त्र आदि के प्रमाण को झूठा बताकर भूत-भविष्यकथनरूप क्रियावाद का निराकरण करना मिथ्या है। मूल पाठ ते एवमक्खंति समिच्च लोग, तही तहा समणा माहणा य । सयं कडं णन्नकडं च दुक्खं, आहंस विज्जाचरणं पमोक्खं ॥११॥ संस्कृत छाया त एवमाख्यान्ति समेत्य लोकं, तथा तथा श्रमणा माहनाश्च । स्वयं कृतं नाऽन्यकृतं च दुःखम् आहुर्विद्याचरणं च मोक्षम् ।।११।। अन्वयार्थ (ते समणा माहणा य) वे श्रमण (शाक्यभिक्षु आदि) तथा माहन यानी ब्राह्मण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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