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समवसरण : बारहवाँ अध्ययन
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हुए वे इन दोनों से मिश्रित परस्पर विरुद्ध पक्ष को स्वीकार करते हैं । अर्थात् कभी वे उसका अस्तित्व कहते हैं तो कभी नास्तित्व कहने लगते हैं । कभी-कभी वे प्रथम जिस पदार्थ का अस्तित्व स्वीकार करते हैं, उसी का नास्तित्व स्वीकार करने लगते हैं । 'च' शब्द से यह सूचित होता है कि पदार्थ का निषेध करते हुए नास्तिक उसी के अस्तित्व का प्रतिपादन कर बैठते हैं । जैसे कि लोकायतिक जीवादि पदार्थों का अभाव बताने वाले शास्त्रों को अपने शिष्य को उपदेश देते हुए शास्त्र के कर्ता आत्मा को तथा उपदेश के साधनरूप शास्त्र को और जिसको उपदेश दिया जाता है, उस शिष्य को तो अवश्य ही स्वीकार करते हैं। क्योंकि इनको स्वीकार किये बिना उपदेश आदि नहीं हो सकता । परन्तु सर्वशून्यतावाद में ये तीनों पदार्थ नहीं आते । इसलिये वे मिश्रपक्ष का सहारा लेते हैं। यानी पदार्थ नहीं है, यह भी कहते हैं, दूसरी ओर उसका अस्तित्व भी स्वीकार करते हैं । अथवा पदार्थ का निषेध करते हुए उन्हें उसका अस्तित्व स्वीकार करना पड़ता है ।
इसी तरह बौद्ध भी परस्पर विरुद्ध मिश्रपक्ष का सहारा लेते हैं । बौद्धों पर आक्षेप करते हुए किसी ने कहा है
गन्ता च नास्ति कश्चिद् गतयः षड् बौद्धशासने प्रोक्ताः 1
गम्यत इति च गतिः स्यात्श्रुतिः कथ शोभना बौद्धी ?
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जिस मत में जाने वाला कोई नहीं माना गया है, उस बौद्ध शासन में छह गतियाँ कही गई हैं । गमन करना गति कहलाती है । जब गमन करने वाला है ही नहीं, तब यह कथन बौद्धशासन में कैसे संगत हो सकता है ? जब कर्म ही नहीं माना गया है, तो उसका फल मिलना कैसे संगत होगा ? जब गति करने वाला कोई आत्मा ही नहीं है, तब उसकी ६ गतियाँ कैसी ? फिर बौद्धों द्वारा मान्य ज्ञानसन्तान भी प्रत्येक ज्ञान से भिन्न नहीं है, अपितु वह आरोपित है तथा प्रत्येक ज्ञानक्षण क्षणविनाशी होने के कारण स्थिर नहीं है । इसलिए क्रिया न होने के कारण बौद्धदर्शन में अनेक गतियों का होना कदापि सम्भव नहीं है । तथा बौद्धों के आगम में सभी कर्मों को अबन्धन माना गया है । इसके बावजूद भी बुद्ध का ५०० बार जन्म लेना भी वे बताते हैं । जब कर्मबन्धन न हो तो जन्म ग्रहण कैसे होगा ? साथ ही वे यह भी कहते हैं -- "माता और पिता को मारकर एवं बुद्ध के शरीर से रक्त निकाल कर अर्हद्वध करके तथा धर्मस्तूप को नष्ट करने से मनुष्य आवीचि नरक में जाता है । " " यह भी कर्मबन्धन के बिना कैसे सम्भव है ? जब सर्वशून्य है तो ऐसे शास्त्रों
१. मातापितरौ हत्वा बुद्धशरीरे च रुधिरमुपात्य ।
अवधं च कृत्वा, स्तुपं भित्वा च पंचैते, आवीचिनरकं यान्ति ।
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