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सूत्रकृतांग सूत्र
का निर्माण कैसे युक्तिसंगत हो सकता है ? यदि कर्म बन्धनदायी नहीं हैं तो प्राणियों में जन्म, जरा, मृत्यु, रोग, शोक, उत्तम, मध्यम और अधम कैसे हो सकते हैं ? इसके अतिरिक्त कर्म का नाना प्रकार का फल प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर होता है। इससे सिद्ध है कि जीव अवश्य है, और वह कर्ता है, तथा कर्मफल का भोक्ता भी है, और वह कर्म से युक्त है। इस तरह पदार्थों का अस्तित्व सिद्ध होने पर भी वे सर्वशून्यवाद को मानते हैं । सर्वशून्यतावाद के पक्ष में उनकी युक्ति यह है
गान्धर्वनगरतुल्या मायास्वप्नोपपातघनसदृशाः ।
मृगतृष्णानीहाराम्बुचन्द्रिकालातचक्रसमाः ॥ बादलों का नगर के-से दृश्य के समान सांसारिक पदार्थ मिथ्या हैं। तथा वे माया, स्वप्न, मृगतृष्णा, ओस बिन्दु, चन्द्रिका एवं मशाल के समान आभास मात्र हैं। यह स्पष्ट ही बौद्धों द्वारा मिश्र पक्ष का स्वीकार करना है। एक ओर वे कर्मों का पृथक्-पृथक् फल मानते हैं, दूसरी ओर वे सर्वशन्यवाद से विपरीत भाषण करते हैं । वे पदार्थों का नास्तित्व बताते हुए भी उसके विपरीत अस्तित्व का भी स्वीकार करते हैं।
अब रहे सांख्य । सांख्यवादी भी आत्मा को सर्वव्यापी मानकर उसे क्रियारहित स्वीकार करके भी प्रकृति के वियोग से उसकी मुक्ति मानते हैं। अतः वे स्वयं अपने मुंह से ही आत्मा का बन्ध और मोक्ष बताते हैं। जब आत्मा का बन्ध और मोक्ष होता है तो उनकी ही वाणी से आत्मा का क्रियावान् होना भी स्वीकृत हो जाता है । इसलिए सांख्यवादी भी मिश्रपक्ष को प्राप्त हैं, क्योंकि क्रिया के बिना बंधमोक्ष कदापि सम्भव नहीं। अतएव सांख्यवादी आत्मा को क्रियारहित सिद्ध करते हुए अपने ही वाक्य से उसे क्रियावान् कह बैठते हैं ।
___इसके आगे शास्त्रकार कहते हैं कि जब स्याद्वादी यथार्थ हेतु, दृष्टान्त आदि प्रस्तुत करके बौद्धमत का खण्डन करने लगते हैं तो वे घबराकर बगलें झांकने लगते हैं, निरुत्तर हो जाते हैं, या असम्बद्ध प्रलाप करते हुए वहाँ से खिसकने लगते हैं। अथवा जैन-प्रतिपादित हेतु, दृष्टान्तों का अनुवाद किए बिना ही तथा उत्तर दिए बिना ही वे अपने पक्ष का प्रतिपादन करते हैं। वे अपने दर्शन को पक्ष से रहित, एकपक्षीय, पूर्वापर विरोध रहित, निर्बाध बताते हैं, लेकिन यह बात मिथ्या है। इनका दर्शन पूर्वापर विरुद्ध अर्थ को किस प्रकार बताता है ? यह हम पहले बता आए हैं।
__अथवा जैनाचार्य कहते हैं कि जैन-दर्शन द्विपक्षीय है, कर्मबन्ध की निर्जरा के बारे में यहाँ दो पक्ष माने गये हैं। जैसे जीव अपने कर्म का फल चोर और परस्त्रीलम्पट के समान इस लोक और परलोक दोनों में प्राप्त करता है। ऐसा सिद्धान्त
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