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________________ ८६४ सूत्रकृतांग सूत्र हए पदार्थ का निषेध करके मिश्रपक्ष को अर्थात पदार्थ के अस्तित्व और नास्तित्व दोनों से मिश्रित विरुद्ध पक्ष को स्वीकार करते हैं। वे स्याद्वादियों के वचन का अनुवाद करने में भी असमर्थ होकर मूक हो जाते हैं। वे अपने मत को प्रतिपक्षरहित और परमत को प्रतिपक्षयुक्त बताते हैं। वे स्याद्वादियों के बचनों का खण्डन करने के लिए वाक्छल का प्रयोग करते हैं ॥५॥ वस्तुस्वरूप को न जानने वाले वे अक्रियावादी नाना प्रकार के शास्त्रों का कथन करते हैं, जिन शास्त्रों का आश्रय लेकर मनुष्य अनन्तकाल तक संसार में परिभ्रमण करते हैं ॥६॥ सर्वशून्यतावादी कहते हैं कि सूर्य उदय नहीं होता, अस्त नहीं होता, तथा चन्द्रमा न घटता है, न बढ़ता है एवं पानी बहता नहीं है, और हवा भी चलती नहीं है। किन्तु यह सारा विश्व अभावरूप और झूठा है ॥७॥ जैसे अन्धे के पास दीपक आदि का प्रकाश होते हुए भी वह घटपटादि पदार्थों को देख नहीं सकता । इसी तरह जिनके ज्ञान पर मोहरूपी पर्दा पड़ा हुआ है, ऐसे अक्रियावादी विद्यमान क्रिया को नहीं देखते ।।८॥ जगत् में बहुत-से लोग ज्योतिषशास्त्र, स्वप्नशास्त्र, लक्षणशास्त्र, निमित्तशास्त्र, शरीर के तिल आदि का फल बताने वाला शास्त्र और उल्कापात, भूकम्प, दिग्दाह आदि का फल बताने वाला शास्त्र, इन आठ अंगों वाले शास्त्रों को पढ़कर भविष्य में होने वाली बातों को जान लेते हैं ॥६॥ कई निमित्त सच्चे होते हैं, और किन्हीं निमित्तवादियों का वह ज्ञान विपरीत होता है, यह देखकर विद्या का अध्ययन न करते हुए अक्रियावादी विद्या के त्याग को ही कल्याणकारक कहते हैं ॥१०॥ व्याख्या अक्रियावादियों की रीति-रीति पाँचवीं गाथा से दसवीं गाथा तक में विभिन्न पहलुओं से अक्रियावादियों की रीति-नीति का, और उनकी गति-मति का निरूपण किया गया है। अक्रियावादियों के सम्बन्ध में कुछ वर्णन हम पहले कर चुके हैं । अक्रियावादी मुख्यतया तीन हैं ---- लोकायतिक, बौद्ध और सांख्य । इन तीनों का अक्रियावाद का प्रतिपादन अलगअलग है। सर्वप्रथम शास्त्रकार ने अक्रियावादी लोकायतिक का मन्तव्य बताया है कि लोकायतिक अपने माने हुए सिद्धान्त से ही जब पदार्थ का अस्तित्व सिद्ध हो जाता है, अथवा जब पदार्थ का अस्तित्व माने बिना अपने सिद्धान्त की सिद्धि होने के कारण वह पदार्थ सिद्ध हो जाता है, तब केवल वचन से उस पदार्थ का निषेध करते Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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