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________________ समवसरण : बारहवाँ अध्ययन का जो व्यवहार देखा जाता है, वह एक तरह से औपचारिक व्यवहार होता है, इसी तरह जगत् में बद्ध और मुक्त का व्यवहार जानना चाहिए । बौद्ध पाँच स्कन्ध मानते हैं, वह भी आरोपमात्र से है, परमार्थरूप से नहीं । उनका मन्तव्य यह है कि कोई भी पदार्थ विज्ञान के द्वारा अपने स्वरूप को प्रकट करने में समर्थ नहीं है, अर्थात् विज्ञान के द्वारा पदार्थों का स्वरूप नहीं जाना जा सकता, क्योंकि अवयवी पदार्थ तत्त्व और अतत्त्व इन दोनों भेदों के द्वारा विचार करने पर पूरा समझ में नहीं आता। इसी तरह अवयव भी परमाणु पर्यन्त विचार करने पर अत्यन्त सूक्ष्म होने के कारण आकाररहित होने से स्वरूप को धारण नहीं करते । बौद्धों के कथन का आशय यह है कि घट आदि अवयवी पदार्थ, कपाल (ठीकरे) आदि अपने अवयवों से भिन्न है या अभिन्न ? इस पर जब विचार किया जाता है, तब वे भिन्न या अभिन्न कुछ भी प्रतीत नहीं होते; क्योंकि यदि अवयवी के समस्त अवयवों को अलग-अलग कर दें तो अवयवी नामक कोई पदार्थ देखने में नहीं आता। ऐसी दशा में उसे अवयवों से अभिन्न कहें, तो यह भी नहीं बनता है, क्योंकि घट-पटादि पदार्थों के अवयवों का विचार करने पर अवयव के भी अवयव और उसके भी अवयव, इस प्रकार अवयवों की धारा निरन्तर चलती हुई परमाणु में जाकर समाप्त होती है। और परमाणु अतीन्द्रिय होने के कारण सामान्य दृष्टि से ज्ञात नहीं होते हैं। अतः अवयवों का ज्ञान भी अशक्य है। ऐसी दशा में कोई भी पदार्थ ज्ञान के द्वारा पूरा-पूरा जाना नहीं जाता। उक्त सिद्धान्त मानने वाले बौद्धमत में भूत और भविष्य के साथ वर्तमान क्षण का कोई सम्बन्ध न होने से क्रिया नहीं होती। और क्रिया न होने से क्रियाजनित कर्मबन्ध भी नहीं होता। तात्पर्य यह है कि आने वाला (अनागत) क्षण अभी आया ही नहीं है और भूतकाल विद्यमान नहीं है तथा पहले और पीछे के क्षणों के साथ वर्तमान क्रिया का कोई सम्बन्ध नहीं है ; क्योंकि नाश हुए के साथ वर्तमान का सम्बन्ध नहीं होता है। अतः क्रिया के साथ सम्बन्ध न होने से उसके द्वारा कर्मबन्ध नहीं होता। इस प्रकार अक्रियावादी नास्तिक हैं। वे सब पदार्थों का खण्डन करते हुए कर्मबन्ध की आशंका से क्रिया का निषेध करते हैं। इसी प्रकार आत्मा के सर्वव्यापी होने से उसे क्रियारहित मानने वाले सांख्यदर्शन वाले भी अक्रियावादी हैं। अतः लोकायतिक, बौद्ध और सांख्य तीनों अक्रियावादी बिना विचार किये ही इस सिद्धान्त को मानते हैं। वे आग्रहपूर्वक यह भी कहते हैं कि हमारे मतानुसार ही पदार्थों का स्वरूप यथार्थ रूप से घटित होता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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