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सूत्रकृतांग सूत्र
विनय ) से ही स्वर्ग और मोक्ष की प्राप्ति बताते हैं । जब कोई धर्मार्थी पुरुष उनसे धर्म और मोक्ष के बारे में पूछता है तो अपना घड़ाघड़ाया पेटेंट उत्तर देते हैं'केवल विनय करने से ही स्वर्ग और मोक्ष की प्राप्ति होती है । विनयवादी सभी कार्यों की सिद्धि के लिए सभी को विनय करने का उपदेश देते हैं । वे समस्त कल्याणों का द्वार विनय को मानते हैं । इन विनयवादियों के ३२ भेद हैं, जिनका विवरण हम पिछले पृष्ठों में अंकित कर आए हैं ।
विनयवादियों के इस एकान्त मताग्रह का निरूपण करते हुए शास्त्रकार कहते हैं - 'अणोवसंखा अट्ठे स ओभास अम्ह एवं ।' आशय यह है कि उपसंख्या- सम्यक् प्रकार से वस्तु के यथार्थस्वरूप के परिज्ञान के बिना ही मिथ्याग्रह विनयवादी महामोह से आच्छादित होकर तपाक से कह देते हैं - हमें तो अपने सभी प्रयोजनों की सिद्धि विनय से ही होती दीखती है । विनय से ही स्वर्ग और मोक्ष की प्राप्ति होगी । परन्तु वे यह नहीं सोचते हैं कि मोक्ष की प्राप्ति सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र की आराधना से ही होती है, यद्यपि विनय भी चारित्र का एक अंग है, परन्तु सबकी जी हुजूरी, मुखमंगलपन या चापलूसी करना वास्तविक विनय - मोक्षमार्ग का अंगभूत विनय नहीं है । अगर विनयवादी ज्ञान-दर्शन- चारित्ररूप विनय को विवेकपूर्वक अपनाएँ तथा सम्यग्दर्शनपूर्वक इनकी आराधना करें, साथ ही जो आध्यात्मिक मार्ग में आगे बढ़े हुए वीतराग परमात्मा हैं या सिद्ध प्रभु हैं, अथवा पंच महाव्रतधारी चारित्रात्मा हैं, उन्हें विवेक की आँखों से देख - परखकर उनकी विनयभक्ति करें तो उक्त मोक्षमार्ग के अंगभूत विनय से स्वर्गमोक्ष प्राप्त हो सकते हैं । परन्तु इसे छोड़कर अध्यात्मविहीन अविवेकयुक्त कोरे विनय से स्वर्ग या मोक्ष बतलाएँ, यह एकान्त दुराग्रह है, मिथ्यावाद है ।
इससे आगे शास्त्रकार अक्रियावादियों का स्वरूप बताकर उनकी मीमांसा करते हैं -- 'लवावसंकी णो किरियमाहंसु अकिरियवादी ।' लव कहते हैं कर्म को । उसकी जो शंका करते हैं, अथवा उससे जो अलग हटते हैं, उसे लवावशंकी कहते हैं । ऐसे लवावशंकी लोकायतिक हैं या शाक्यदर्शनी हैं। इनके मत में आत्मा ही नहीं है, तो उसकी क्रिया कहाँ से हो सकती है और उस क्रिया से उत्पन्न कर्मबन्ध भी कहाँ से हो सकता है ? अतः इनके मत में वास्तविक बन्ध नहीं है, केवल आरोपमात्र से बन्ध है । जैसे कि कहा हैं
बद्धा मुक्ताश्च कथ्यन्ते, मुष्टिग्रन्थिकपोतकाः । न चान्ये द्रव्यतः सन्ति, मुष्टिग्रन्थिकपोतकाः ॥
अर्थात् - जैसे लोक व्यवहार में कहते हैं— मैंने मुट्ठी बाँध ली तथा मुट्ठी खोल ली; यहाँ मुट्ठी बाँधना और खोलना केवल आरोप है। वस्तुतः वह कोई रस्सी से बाँधी और खोली नहीं जाती है । गाँठ और मुट्ठी में बाँधने और खोलने
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