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समवसरण : बारहवाँ अध्ययन
इसलिए वे बेचारे वाक्कलह करके असन्तुष्ट रहते हैं, उनके जीवन में क्षेमकुशल नहीं हैं, हम सब तरह से कुशलमंगल हैं, क्योंकि हम फालतू किसी से न बोलते हैं, न ज्ञान बघारते हैं, चुपचाप अपने आप में मस्त रहते हैं। वास्तव में उन तथाकथित ज्ञानवादियों के पास क्या है, एक सिरदर्द है।
___शास्त्रकार इन अज्ञानवादियों की नब्ज को पहचानकर कहते हैं, कि अज्ञानवादी अपने को कुशल बताते हैं, लेकिन अज्ञान के कारण किस जीव को कुशलता मिलती है ? अज्ञान के कारण ही तो जीव नाना प्रकार के दुःखों से पीड़ित हैं, अज्ञान के कारण ही बुरे कर्म करके प्राणी दुर्गति और नीच योनि में जाता है। नरक में कौन-से ज्ञानी हैं ? अज्ञानी ही तो हैं । फिर वे परस्पर लड़ते-भिड़ते क्यों हैं ? क्यों वे इतना दुःख पाते हैं ? क्यों वे कुशल-क्षेम में नहीं हैं ? और तिर्यञ्चयोनि के जीवों को देखिए । वे भी तो अज्ञानी हैं, फिर भी कितने पराधीन हैं, कितने भूखप्यास, सर्दी-गर्मी के भयंकर दुःख उन्हें उठाने पड़ते हैं । परतन्त्रता का दुःख कितना भयंकर है । अज्ञान में डूबे हैं, तभी तो वे कोई भी प्रगति सामाजिक, धार्मिक या आध्यात्मिक क्षेत्र में नहीं कर सकते । इसलिए अज्ञानी अपने आपको कुशल-क्षेम में मानें, परन्तु उनके जीवन में कोई कुशलता नहीं आती, पशु से भी गया-बीता, पिछड़ा हुआ जीवन है उनका । इसलिए अज्ञान ही कल्याणकर है, ऐसा कहकर वे असम्बद्ध भाषण करते हैं, क्योंकि अपने सिद्धान्त का प्रतिपादन ज्ञान से करते हैं, मगर ज्ञान को कोसते हैं। इसीलिए तो वे महाभ्रान्ति के शिकार हैं। अज्ञान किस बात का श्रेयस्कर है ? यह जरा सापेक्ष दृष्टि से विचारणीय है । वैर-विरोध, अहंकार, क्रोध, माया, मोह आदि पिछले विकारों को न जानना और स्मरण न करना ही श्रेयस्कर है। किन्तु जीवादि पदार्थों का ज्ञान न करना तो कदापि थे यस्कर नहीं हो सकता ।
भ्रान्ति के इतने शिकार होते हुए भी अज्ञानवादी कहते हैं कि जितने भी ज्ञानवादी हैं, वे सभी एक-दूसरे से विरुद्ध पदार्थ का स्वरूप बताते हैं। इसलिए वे यथार्थवादी नहीं है । जैसे आत्मा को ही ले लीजिए। कोई तो आत्मा को सर्वव्यापी मानता है, कोई असर्वव्यापी, कोई अँगूठे के पर्व के समान मानता है तो कोई हृदयस्थित मानता है और कोई ललाटस्थित । कोई आत्मा को नित्य और अमूर्त कहता है, इसके विपरीत कोई उसे अनित्य और मूर्त बताता है । अतः इन ज्ञानवादियों को मामला कुछ समझ में नहीं आता । सभी परस्पर एक-दूसरे से विरुद्ध हैं, एकमत नहीं हैं । किसकी बात प्रमाणभूत एवं यथार्थ मानी जाए, किसकी नहीं ? जगत में कोई अतिशय ज्ञानी भी नहीं है कि जिसका वचन प्रमाण माना जाए। अगर कोई अतिशय ज्ञानी हो भी तो अल्पज्ञ पुरुष उसे जान नहीं सकता। असर्वज्ञ सर्वज्ञ को जानेगा ही कैसे ? सर्वज्ञ विद्यमान हो तो भी जिसे सर्वज्ञ के समान उत्कृष्ट ज्ञान नहीं है, वह सर्वज्ञ को कैसे पहचान सकेगा? अथवा यों कहें कि जो सर्वज्ञ नहीं है, वह सर्वज्ञ
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