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________________ ८५६ सूत्रकृतांग सूत्र को जानने का उपाय भी नहीं जान सकता। क्योंकि सर्वज्ञ को जानने का उपाय जानने पर ही सर्वज्ञ को जान सकता है. और स्वयं सर्वज्ञ बने बिना सर्वज्ञ को जानने का उपाय नहीं जान सकता है। इस प्रकार सर्वज्ञज्ञान और सर्वज्ञोपायज्ञान में अन्योन्याश्रय दोष होने से सर्वज्ञ को जानना दुष्कर है। अतः हम तो कहते हैं कि सर्वज्ञ कोई है ही नहीं । सर्वज्ञ के अभाव में, जो सर्वज्ञ नहीं है, उसे वस्तु के यथार्थ स्वरूप का ज्ञान न होने से तथा ज्ञानवादियों के द्वारा पदार्थों का परस्पर विरुद्ध स्वरूप स्वीकार किये जाने से, तथा ज्यों-ज्यों अधिक ज्ञान होता है, त्यों-त्यों भूल करने पर अधिक अपराध समझे जाने से अज्ञान ही कल्याण का साधन है। वे कहते हैं कि अज्ञानतावश कोई किसी के सिर पर लात मार दे तो इतना बड़ा दोष नहीं माना जाता, क्योंकि उसका भाव शुद्ध है। इस प्रकार का परस्पर विरुद्ध कथन करने वाले अज्ञानवादी मिथ्यादृष्टि हैं, वे सम्यक् ज्ञान से रहित हैं । वे भ्रम में पड़े हुए हैं । उनका यह आक्षेप किसी माने में सही है कि परस्पर विरुद्ध अर्थ बताने के कारण ज्ञानवादी सच्चे नहीं है, क्योंकि परस्पर विरुद्ध अर्थ बताने वाले लोग असर्वज्ञ के आगमों को मानते हैं। इसीलिए वे परस्पर विरुद्ध अर्थ बताते हैं। परन्तु इससे समस्त सिद्धान्तों पर बाधा नहीं आती, क्योंकि सर्वज्ञप्रणीत आगम को मानने वाले वादियों के वचनों में परस्पर विरोध कहीं नहीं आता । क्योंकि इसके बिना सर्वज्ञता होती ही नहीं। अतः ज्ञान पर आया हुआ परदा सम्पूर्णतया दूर हो जाने से तथा राग, द्वेष, मोह आदि जो असत्यभाषण के कारण हैं उनका सर्वथा अभाव होने से सर्वज्ञ के वचन सत्य हैं । उन्हें अयथार्थ नहीं कहा जा सकता। सर्वज्ञप्रणीत आगम को मानने वाले परस्पर विरुद्ध बात नहीं कहते हैं। सर्वज्ञसिद्धि के कारण अज्ञानवाद का खण्डन सर्वज्ञ हो भी तो अल्पज्ञ जीव के द्वारा वह जाना नहीं जा सकता', अज्ञानवादियों का यह कथन भी युक्तिविरुद्ध है। यद्यपि सराग वीतराग की-सी चेष्टा करते देखे जाते हैं और वीतराग सराग की-सी प्रवृत्ति करते नजर आते हैं, इसलिए दूसरे की मनोवृत्ति अल्पज्ञ द्वारा जानी नहीं जा सकती, इस तरह प्रत्यक्ष से सर्वज्ञ की उपलब्धि न होने पर भी सर्वज्ञ के अस्तित्व से इन्कार नहीं किया जा सकता; क्योंकि सम्भव और अनुमान प्रमाण से सर्वज्ञ की सिद्धि होती है। जैसे-व्याकरण आदि शास्त्रों के अध्ययन से संस्कारित बुद्धि का अतिशय ज्ञेय सजीव पदार्थों में देखा जाता है, अर्थात् अज्ञानी की अपेक्षा व्याकरणशास्त्री या सुशिक्षित मनुष्य अधिक जानता-समझता है, इसी तरह ध्यान, समाधि, ज्ञान, साधना आदि के विशिष्ट अभ्यास करने से उत्तरोत्तर ज्ञानवृद्धि होने से कोई समस्त वस्तुओं को जानने वाला सर्वज्ञ भी हो सकता है । वह सर्वज्ञ नहीं हो सकता, ऐसा कोई सर्वज्ञता का बाधक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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