________________
८५४
सूत्रकृतांग सूत्र ऐसा कहने वाले अक्रियावादी हैं । तीसरे विनयवादी हैं, जो विनय से ही मोक्ष मानते हैं, और चौथे हैं अज्ञानवादी, जो अज्ञान को ही कल्याणकर मानते हैं।
इन सबके भेदों की संख्या का वर्णन पहले के पृष्ठों में किया जा चुका है। अब शास्त्रकार सर्वप्रथम अज्ञानवाद का निरूपण करते हैं
मूल पाठ अण्णाणिया ता कुसला वि संता, असंथुआ णो वितिगिच्छतिण्णा । अकोविया आहु अकोविएहि, अणाणुवीइत्त मुसं वयंति ॥२॥
संस्कृत छाया अज्ञानिकारते कुशला अपि सन्तोऽसंस्तुता: नो विचिकित्सातीर्णाः । अकोविदा आहुरकोविदेभ्योऽननुविचिन्त्यतु मृषा वदन्ति ॥२॥
अन्वयार्थ (ता अण्णाणिया) वे अज्ञानवादी (कुसला वि संता) अपने आपको कुशल मानते हए भी (गो वितिगिच्छतिण्णा) संशय से रहित नहीं हैं। (असंथुआ) अतः वे मिथ्यावादी होने से लोगों में प्रशंसापात्र नहीं हैं। (अकोविया अकोविएहिं) वे स्वयं अज्ञानी हैं और अज्ञानी शिष्यों को उपदेश देते हैं। (अणाणुवीइत्त मुसं वयंति) वे वस्तुतत्त्व का विशेष चिन्तन न करके मिथ्या भाषण करते हैं।
भावार्थ वे अज्ञानवादी अपने आपको निपुण मानते हैं, फिर भी वे संदेहरहित नहीं हैं, अपितु दे शंकाग्रस्त हैं। वे स्वयं अज्ञानी हैं और अपने अज्ञानी शिष्यों को उपदेश देते हैं। वे वस्तुतत्त्व का विचार न करके मिथ्या भाषण करते हैं।
व्याख्या अज्ञानवादियों का स्वरूप
इस गाथा में शास्त्रकार इन चार सिद्धान्तों में से सर्वप्रथम अज्ञानवादियों का स्वरूप बताते हैं । इन चारों में अज्ञानवादी सबसे अन्त में है, उगे ही सबसे पहले बताने का कारण यह है कि इन चारों में से अज्ञानवादी ही अत्यन्त विपरीतभाषी हैं, क्योंकि वे समस्त पदार्थों का अपलाप ज्ञान का अस्तित्व से इन्कार करके करते हैं।
अज्ञानवादी उसे कहते हैं, जो अज्ञान को ही कल्याणकारी मानकर अपने आपको सन्तुष्ट मानते हैं, या जो स्वयं अज्ञानी हैं । अज्ञानवादी अपने आपको कुशल बताते हैं कि हम बड़े चतुर हैं । दूसरे जितने भी ज्ञानवान कहलाते हैं, वे अपने-अपने ज्ञान के अहंकार में डूबे हैं और परस्पर लड़ते हैं, एक-दूसरे पर आक्षेप करते हैं ।
Jain Education International
national
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org