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समय : प्रथम अध्ययन-प्रथम उद्देशक
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से सोचें तो मृषावाद आदि का सेवन करने में आत्मा के शुभ तथा शुद्ध परिणामों की हिंसा होती ही है, अत: आत्मा के शुद्ध परिणामों की हिंसा होने के कारण मृषावाद आदि का समावेश 'हिंसा' में ही हो जाता है जैसा कि कहा है---
आत्मपरिणाम हिंसनहेतुत्वात् सर्वमेव हिंसेति । अन्तवचनानि केवलमुदाहृतं शिष्य-बोधाय ॥ ४२ ।।
--पुरु० सि० अर्थात---आत्मा के परिणामों की हिंसा के कारण होने से असत्य आदि सभी एक तरह से हिंसा ही हैं । हिंसा में ही इन सबका अन्तर्भाव हो जाता है । मृषावाद आदि पापास्रव तो केवल शिष्यों को सरलता से बोध प्राप्त कराने के लिए बताए हैं।
अतः कर्मबन्धन के कारणभूत 'अविरति' के परिग्रह, हिंसा आदि पाँचों प्रकारों का स्वरूप और परिणाम एक तरह से शास्त्रकार ने बता दिये हैं । इसलिये असत्य , स्तेय (चोरी) और अब्रह्मचर्य (मैथुन) को भी मन-वचन-काया से कृतकारित-अनुमोदित रूप में, कर्मबन्धन के कारण समझ लेने चाहिए । अगली गाथा में फिर बन्धन के कारण का स्वरूप बताते हैं
मूल पाठ जस्सिं कुले समुप्पन्न, जेहि वा संवसे नरे । ममाइ लुप्पई बाले, अण्णे अण्णेहि मुच्छिए ॥ ४ ॥
संस्कृत छाया यस्मिन्कुले समुत्पन्नो, यैर्वा संवसेत् नरः । ममायं लुप्यते बालः, अन्येष्वन्येषु मूच्छितः ।। ४ ।।
अन्वयार्थ (नरे) मनुष्य (जस्सिं कुले) जिस कुल में, (समुप्पन्न) उत्पन्न हुआ है। (जेहिं वा) अथवा जिनके साथ, (संवसे) निवास करता है। (बाले) वह बालअज्ञजीव (ममाइ) उनमें ममत्व बुद्धि रखता हुआ (लुप्पई) पीड़ित होता है । (अण्णे अण्णेहि) वह अज्ञानी दूसरी-दूसरी वस्तुओं में (मुच्छिए) मूच्छित-आसक्त होता रहता है।
भावार्थ मनुष्य जिस कुल में उत्पन्न हुआ है, और जिनके साथ निवास करता
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