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सूत्रकृतांग सूत्र कर्ता का वैर बंध जाता है। वे प्राणी जन्मान्तर में उस हिंसाकर्ता से अपने वर का बदला लेते हैं, अर्थात् उन भूतपूर्व हिंसकों को वे मारते हैं। उसके पश्चात अगले जन्म में फिर वे भूतपूर्व हिंसक अपने हिंसकों से वैर का प्रतिरोध लेने हेतु उन्हें मारते हैं । इस प्रकार अरहटघटिका यंत्र (रेहट) के न्याय से वैर की परम्परा बढ़ती ही चली जाती है जिनके कारण कर्मवन्धनरूप दुखों की परम्परा से वह जीव सहसा मुक्त नहीं हो पाता।
'वेरं बडढइ अप्पणो' इस वाक्य का एक दूसरा अर्थ भी ध्वनित होता है । वह यह है कि इस प्रकार हिंसा करने, कराने या अनुमोदन करने वाला व्यक्ति अपनी आत्मा के साथ भी वैर बढ़ाता रहता है। क्योंकि जब वह किसी प्राणी की हिंसा करता है, तो वह अपनी ही भावहिंसा करता है। दूसरे, प्राणी का वध तो कर सके या न भी कर सके, कषायों और राग-द्वेष के वश अपनी आत्मा की तो भावहिंसा कर ही लेता है और अपनी आत्मा का अहित करने या उत्पथ पर ले जाने वाला जीव आत्मा की हिंसा करके अपनी आत्मा का शत्रु बन जाता है। जैसा कि उत्तराध्ययन सूत्र में कहा है
अप्पा कत्ता विकत्ता य दुहाण य सुहाण य ।
अप्पा मित्तममित्त च दुपट्टिओ सुपट्टिओ। ---आत्मा ही अपने लिये दुखों और सुखों का कर्ता भोक्ता है। आत्मा ही विपरीत मार्ग पर प्रस्थान करने पर अपना शत्रु बन जाता है और सुमार्ग पर चलने वाला आत्मा ही अपना मित्र बनता है।
इस दृष्टि से यह कहा जा सकता है कि दूसरे प्राणियों की हिंसा करने-करानेअनुमोदन करने से आत्मा ही अपने राग-द्वषादि परिणामों से अपनी भावहिंसा करके भयंकर कर्मबन्धन के चक्र में अपनी आत्मा को डाल देता है, अत: ऐसा आत्मा ही अपना शत्रु बन कर वैर परम्परा को बढ़ाता है, जिसके फलस्वरूप हजारों वर्षों तक आत्मा अपना ही शत्रु बना रहता है । वैर बढ़ाता चला जाता है। असत्य, स्तेय, अब्रह्मचर्य आदि भी बन्धन के कारण
इस तीसरी गाथा के मूलपाठ में 'प्राणातिपात' शब्द उपलक्षण रूप है। मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन और परिग्रह आदि भी बन्ध के कारण हैं क्योंकि मृषावाद आदि का सेवन करते समय आत्मा के भावप्राणों की हिंसा अवश्य होती है, इसलिये मृषावाद आदि भी हिंसा के अन्तर्गत समझ लेने चाहिए। दूसरी तरह
१ जो दूसरे का भी बोध कराता है, उसे उपलक्षण कहते हैं ।
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