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________________ ४३ समय : प्रथम अध्ययन- -- प्रथम उद्देशक आशय यह है कि स्वयं हिंसा करने की तरह दूसरों से कराने या दूसरे द्वारा की गई हिंसा से निष्पन्न वस्तु का उपयोग करने से व्यक्ति हिंसा के पाप से बच नहीं जाता, बल्कि समाज की आँखों में धूल झोंकने और समाज की दृष्टि में अपने आपको धर्मात्मा या प्रतिष्ठित बरकरार रखने के लिए वह दूसरों से हिंसा करा कर या करने के लोभ से प्रोत्साहन देकर या प्रेरणा करके वंचना के पाप का अधिक भागी होता है तथा जब तक व्यक्ति हिंसा से निष्पन्न वस्तु को उपयोग करने का त्याग नहीं कर लेता, तब तक वह उसका उपयोग करेगा, तो परोक्ष रूप से उसे हिंसा के अनुमोदन का पाप लगेगा ही । एक आदमी रेशमी वस्त्र पहनता है, वह यह सम झता है, मैंने शहतूत के कीड़ों को मारने का कहा नहीं, मैंने हिंसा कराई नहीं, मैं तो रेशमी वस्त्र का उपयोग कर लेता हूँ, तो क्या वह हिसा के पाप से बच सकता है । यों तो बर्मा में कई दुकानों पर साइन बोर्ड लगा होता है - 'यह बकरा तुम्हारे लिये नहीं काटा गया है' और भोले-भाले लोग उसका मांस खरीद कर खा जाते हैं। और समझते हैं कि हमें हिंसा का पाप नहीं लगा । क्या आपका दिल उसे हिंसा के पाप से मुक्त कहेगा ? कदापि नहीं । इसीलिये चाणक्यनीति में कहा गया है-अनुमन्ता विशसिता निहन्ता क्रय-विक्रयी । संस्कर्ता चोपहर्ता च खादकश्चेति घातकाः || --- किसी जीव की हिंसा का अनुमोदन करने वाला, दूसरे के कहने से किसी का वध करने वाला, स्वयं उस जीव का घात करने वाला, जीवहिंसा से निष्पन्न मांस आदि को खरीदने-बेचने वाला, मांस आदि चीज को पकाने वाला, परोसने वाला या उपहार देने वाला और हिंसा से निष्पन्न उस मांसादि वस्तु को स्वयं खाने वाला, उपभोग करने वाला ये सब हिंसक की कोटि में हैं । इसलिये साक्षात् या परम्परा से जो मन, वचन या काया से पूर्वोक्त दृष्टि से हिंसा का कर्ता है, वह हिंसक ही है । अथवा जो हिंसा का अनुमोदन, समर्थन या अनुमति देता है, प्रोत्साहन देता है, उसकी प्रशंसा करता है, उसे धन्यवाद देता है या हिंसा को प्रोत्साहन देने या उत्तेजन देने वाले विचारों को लेख, पुस्तक, ग्रन्थ आदि में प्रकाशित करके उसका प्रचार-प्रसार करता है, वह एक प्रकार से हजारों वर्षों तक हिंसा की परम्परा को फैलाता है; इसलिये वह भी हिंसक की कोटि में है । जैसे यज्ञ में या देवी- देवों के नाम से पशुबलि देने की प्रथा को प्रचलित करने वाला व्यक्ति हिंसा का समर्थक ही कहा जायेगा । वेरं वड्ढइ अप्पणी - इस तरह किसी भी प्रकार से हिंसाकर्ता व्यक्ति इस जन्म में जिन प्राणियों की हिंसा करता कराता है, उन प्राणियों के साथ उस हिंसा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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