________________
सूत्रकृतांग सूत्र
के पूर्वोक्त दस द्रव्यप्राणों में से किसी प्राण का घात प्रमाद एवं कषाय से युक्त मन, वचन और काया (योग) से स्वयं करना, दूसरों से कराना और करते हुए को अनुमति या अनुमोदन देना हिंसा है।' हिंसा : कृत-कारित-अनुमोदित रूपों में समान
कई धर्मभीरु लोग यह समझते हैं कि हमने स्वयं अपने मन-वचन-तन से हिंसा नहीं का, दूसरे से करा ली तो इसमें हमें हिंसा का पाप क्यों लगेगा ? अथवा कोई स्वतः हिंसा कर रहा है, हमने उसे हिंसा करने को कहा नहीं, किन्तु हम उसके द्वारा मारे हुए जीव के मांसादि पदार्थ का उपयोग कर लेते हैं, अथवा हम स्वयं हिंसा-निष्पन्न मांसादि का उपयोग नहीं करते, सिर्फ उसे बेचते हैं कोई खाएपिए इससे हमें क्या? हम तो निलेप हैं, सिर्फ उस हिंसा निष्पन्न वस्तु को बेचने की दलाली कर लेते हैं। फिर हमें हिंसा क्यों लगेगी ? अथवा हमने हिंसा की नहीं, कराई नहीं, सिर्फ जो हिंसा हो चुकी है, या की जा रही है उसे देखकर आनन्दित हो उठे, मन बहला लिया, पशुओं को आपस में लड़ते-मरते देखकर या मनुष्यों को परस्पर मार-पीट करते देखकर विनोद या आमोद-प्रमोद का आनन्द लूट लिया, या थोड़ा-सा उकसा कर किसी की होती हुई हिंसा को जल्दी समाप्त करा दिया या किसी दुष्ट हत्यारे या पापी के वध का समर्थन कर दिया तो इसमें हमें हिंसा करने का दोष क्यों लगेगा ?
इस पर एक, दूसरे दृष्टिकोण से सोचें--एक व्यक्ति समाज में प्रतिष्ठित है, धर्मभीरु भी है किन्तु धन के अति लोभ में आकर या स्वार्थ के वश, अथवा ममत्व वश अपने पथ में बाधक, विरोधी या धन सम्पन्न व्यक्ति को स्वयं तो नहीं मारता किन्तु किसी डाक्टर को कहकर या किसी गुंडे या हत्यारे को चुपचाप कुछ धन का लोभ देकर उसे विष दिला देता है, या शस्त्र से मरवा डालता है, कुए तालाब में धक्का देकर मरवाता है, या फिर धोखे से मरवाता है । अथवा स्वयं मारता-मरवाता नहीं, मारने का उपदेश देता है, इस प्रकार का प्रोत्साहन देता है, ऐसे विचारों का प्रसार करके मारने का अनुमोदन-समर्थन करता है, तो क्या ऐसे व्यक्ति को हिंसा का पाप नहीं लगेगा? इसी भ्रान्ति का निराकरण करने के लिये शास्त्रकार मूल पाठ में स्पष्ट उल्लेख करते हैं—अदुवाऽन्न हि घायए, हणतं वाऽणुजाणाइ ।'
१. यत्खलुकषाययोगात् प्राणानां द्रव्यभावरूपाणाम् । व्यपरोपणस्य करणं सुनिश्चिता भवति सा हिंसा ॥४३॥
--पुरुषार्थ सिद्ध युपाय
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org