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________________ मार्ग : एकादश अध्ययन ८४१ सेवन करते हैं, (२) आतध्यान करते हैं (३) विषयों की प्राप्ति का अधम सपाप ध्यान करते हैं, (४) वे शुद्धमार्ग को छोड़कर उन्मार्ग में प्रवृत्त होते हैं, (५) आस्रवों का भरपूर सेवन करते हैं। पहला आक्षेप-वे चावल, गेहूँ आदि अनाज बीजरूप जो सचित्त होता है, तथा अप्रासुक (कच्चा) पानी का सेवन करते हैं, उन्हें दान देने के लिए उनके भक्तों द्वारा अग्निकाय आदि का आरम्भ करके पकाए हुए सरस आहार को वे भोगते हैं। अगर जीव और अजीव का अन्तर समझते तो सजीव तथा जीवहिंसाजनित वस्तुओं का उपभोग न करते। दूसरा आक्षेप -- वे बौद्धसंघ के लिए आहार बनवाने तथा उसे प्राप्त करने के लिए अहर्निश चिन्तित रहते हैं, अर्थात् आर्तध्यान करते हैं। जो लोग इहलौकिक सुख की कामना करते हैं, दास-दासी, धन-धान्य आदि परिग्रह रखते हैं, उन्हें धर्मध्यान होना सम्भव नहीं है । कहा भी है-- ग्राम-क्षेत्रगृहादीनां गवां प्रेष्यजनस्य च यस्मिन् परिग्रहो दृष्टो, ध्यानं तत्र कुतः शुभम् ।। अर्थात्---जो व्यक्ति गाँव, क्षेत्र, गृह आदि का, गायों और दासजनों का परिग्रह रखता है, उसे शुभध्यान कैसे होगा ? परिग्रह तो वैसे ही मोह, मद, लोभ, अशान्ति आदि दुःखों का घर है। धैर्य शान्ति, चित्तैकाग्रता आदि का विनाशक है। वह शुभध्यानपूर्वक कदापि नहीं हो सकता। फिर वे शाक्य आदि पचन-पाचन आदि आरम्भक्रिया में प्रवृत्त रहते हैं, उसी बात की चिन्ता करते रहते हैं, उन्हें शुभध्यान कहाँ से होगा ? तथा वे धर्म एवं अधर्म के विवेक में निपुण नहीं हैं, क्योंकि त्याग में धर्म न मानकर, भोग में धर्म मानते हैं। मनोज्ञ आहार, मनोज्ञ मृदुल शय्या, मनोज्ञ आसन और बढ़िया सुन्दर घर आदि जो वस्तुतः राग के कारण हैं, उन्हें वे शुभध्यान के कारण मानते हैं। भला रागवर्द्धक वस्तुओं के सेवन से त्यागवर्द्धक शुभध्यान कैसे हो जाएगा? तथा वे मांस का 'कल्किक' नाम रखकर उसे खाने में दोष नहीं मानते और न बौद्धसंघ के लिए किये जाने वाले आरम्भ को ही दोषयुक्त मानते हैं। इस प्रकार मनोज्ञ और उद्दिष्ट आहार आदि का सेवन करने और परिग्रह रखने से बेचारे शुभध्यानविहीन शाक्य आदि धर्ममार्ग से युक्त कैसे रह सकते हैं ? तीसरा आक्षेप-जैसे ढंक, कंक, कुररी, जलमुर्गा आदि जल में तैरने वाले पक्षी अहर्निश मछलियों को ढूंढने और उन्हें निगलने के दुर्ध्यान में मग्न रहते हैं, वैसे ही जो मिथ्यादृष्टि आरम्भ-परिग्रहयुक्त होने के कारण अनार्य, तथाकथित श्रमण अहर्निश विषयप्राप्ति का ही आर्त-रौद्र ध्यान करते हैं, वे भी ढंक आदि पक्षियों की तरह कलुषित ध्यान से दूर नहीं हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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