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सूत्रकृतांग सूत्र
चौथा आक्षेप सम्यग्दर्शनादि धर्मरूप निर्दोष जो मोक्षमार्ग है, उसे ठुकरा कर शाक्य आदि कुमार्ग की प्ररूपणा करके विराधना करते हैं। संसार के राग के कारण उनकी बुद्धि कलुषित और महामोह से दूषित हो जाने से वे अच्छे मार्ग को छोड़कर स्वच्छन्दाचारकल्पित कुमार्ग पर चलते हैं । इस कारण वे वास्तविक मार्ग
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बहुत दूर हैं ।
पाँचवाँ आक्षेप जैसे कोई जन्मान्ध व्यक्ति छेदवाली नौका में बैठकर नदी पार करना चाहता है, उसके मनसूबे अधूरे ही रह जाते हैं, बेचारा अधबीच में नौका डूबने के साथ जलसमाधि ले लेता है, दुःखी हो जाता है, वैसे ही वे ( शाक्य आदि ) जिस जीवनरूपी नौका पर बैठे हैं, वह आस्रवरूपी छिद्रों से युक्त है, क्योंकि उन मिथ्यादृष्टि, अनार्य श्रमणों का जीवन आस्रवसेवन से परिपूर्ण है । इस कारण उस सछिद्र नौका पर सवार जात्यन्ध की तरह वे भी संसारसागर में डूब जाते हैं । उनका धर्म उन्हें तरा नहीं सकता ।
उपर्युक्त पाँचों ही आक्षेप अकाट्य हैं, युक्तियुक्त हैं । अतः शाक्य आदि अन्यतीर्थिक भावमार्ग से कोसों दूर हैं, यह सिद्ध है ।
मूल पाठ
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इमं च धम्ममादाय, कासवेण पवेइयं तरे सोयं महाघोरं, अत्तत्ताए परिव्वए विरए गामधम्मेहि जे केइ जगई जगा तेसि अत्त वमायाए, थामं कुव्वं परिव्वए अइमाणं च मायं च तं परिन्नाय पंडिए । सव्वमेयं णिराकिच्चा, निव्वाणं संघए मुणी ॥ ३४ ॥ संघए साहुधम्मं च पावधम्मं णिराकरे उवहाणवीरिए भिक्खू, कोहं माणं ण पत्थए । ३५ ।। संस्कृत छाया
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इमञ्च धर्ममादाय, काश्यपेन प्रवेदितम् तरेत् स्रोतो महाघोरमात्मत्राणाय परिव्रजेत् ॥ ३२॥ विरतो ग्रामधर्मेभ्यो, ये केचिज्जगति जगा: तेषामात्मानमया, स्थामं कुर्वन् परिव्रजेत् अतिमानञ्च मायां च तत्परिज्ञाय पण्डितः सर्वमेतन्निराकृत्य, निर्वाणं सन्धयेन्मुनिः
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