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________________ ८४० सूत्रकृतांग सूत्र दूषित करके (उम्मग्गगता ) उन्मार्ग में प्रवृत्त अपने लिए वैसे दुःख और घात ( नाश ) को मार्ग की (विराहिता) विराधना करके होते हैं । (दुक्खं घायं तं तहा एसंति) वे न्यौता देते है- बुलाते हैं ||२६|| ( जहा ) जैसे (जाइअंधो ) जन्मान्ध पुरुष (आसाविणि नावं दुरूहिया ) छेद वाली नौका पर चढ़कर ( पारमागंतु इच्छई ) नदी को पार करना चाहता है, (अंतरा य विसी) परन्तु वह बीच में ही डूब जाने से दुःख पाता है ॥ ३० ॥ ( एवं तु मिच्छदिठी एगे अणारिया समणा) इसी तरह कई मिथ्यादृष्टि अनार्य श्रमण (कसिणं सोयमावन्ना) पूर्णरूप से आस्रव का सेवन करते हैं । (महन्भयं आगंतारो ) किन्तु उन्हें महान् भय ( खतरे ) का सामना करना पड़ेगा ||३१|| भावार्थ सचित्त बीज और कच्चा पानी तथा उनके लिए बनाये गए आहार का उपभोग करके वे अन्यतीर्थिक आर्तध्यान करते हैं । अतः वे प्राणियों के दुःख (खेद) के ज्ञान से रहित अथवा धर्मज्ञान से रहित एवं भावसमाधि से दूर हैं ||२६|| जैसे ढंक, कंक, कुरर, जलमुर्गे और शिखी नामक पक्षी जल में रहकर सदा मछलियाँ पकड़ने और गटकने के ध्यान में रत रहते हैं, इसी तरह कई मिथ्यादृष्टि अनार्य श्रमण नामधारी सदा विषय प्राप्ति का ध्यान करते हैं, वे भी ढंक, कंक आदि पक्षियों की तरह पापी और अधम हैं ।।२७-२८।। इस जगत् में कई दुर्बुद्धि लोग शुद्धमार्ग से भ्रष्ट होकर उन्मार्ग में प्रवृत्त होते हैं, वे अपने लिए दुःख और विनाश को ढूँढ़ते हैं || २ || जैसे जन्मान्धपुरुष छिद्रयुक्त नौका पर चढ़कर नदी को पार करना चाहता है, परन्तु वह मझधार में ही डूबकर दुःख पाता है ||३०|| इसी प्रकार कई मिथ्यादृष्टि अनार्य तथाकथित भ्रमण पूर्णरूप से आस्रव का सेवन करते हैं, किन्तु उन्हें महाभय ( खतरे ) का सामना करना पड़ेगा ॥ ३१ ॥ Jain Education International व्याख्या भावमार्ग से दूर : क्यों और कैसे ? इन गाथाओं में शास्त्रकार ने युक्तिसहित यह बताया है कि पूर्व गाथा में बताए गए अन्यतीर्थिक लोग, जो अपने आपको श्रमण, ज्ञानी, प्रबुद्ध आदि मानते हैं और धर्म और मोक्ष की बातें बघारते हैं, भावमार्ग ( सम्यग्दर्शनादिरूप धर्म, या मोक्षमार्ग या समाधि) से क्यों और कितने दूर हैं ? शास्त्रकार ने उन पर ५ आक्षेप किये हैं(१) वे जीवाजीव के स्वरूप से अनभिज्ञ होने से सचित्त और औद्दोशिक आहार का For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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