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सूत्रकृतांग सूत्र
अन्वयार्थ (तमेव अविजाणता) उसी परिपूर्ण (सांगोपांग) धर्म को न जानते हुए, (अबुद्धा बुद्धमाणिणो) अज्ञानी होकर भी अपने आपको ज्ञानी मानने वाले (बुद्धा मोत्ति य मन्नंता) 'हम ज्ञानी है,' यों मानते हैं, ऐसे व्यक्ति (एए समाहिए अंते) इस समाधिरूप धर्म से कोसों दूर हैं ।
भावार्थ पूर्वोक्त शुद्ध, अनुपम और सांगोपांग धर्म के तत्त्व को न जानते हुए, अज्ञानी होते हए भी अपने आपको ज्ञानी मानने वाले अन्यतीथिक पुरुष हम ज्ञानी हैं,' ऐसा मानते हैं। ऐसे व्यक्ति इस समाधिरूप धर्म से बहुत दूर हैं।
व्याख्या वे शुद्धधर्म के तत्त्वज्ञान से काफी दूर हैं
इस गाथा में उन लोगों को आड़े हाथों लिया है, जो परिपूर्ण शुद्ध धर्म को न जानते हुए भी अपने आपको बहुत बड़ा ज्ञानी बताते हैं । वास्तव में परीक्षा करके देखा जाय तो वे धर्म और मोक्ष के वस्तुतत्त्व के ज्ञान से कोसों दूर हैं । इसीलिए शास्त्रकार कहते हैं "अंते एए समाहिए' ये समाधि से दूर हैं। समाधि शब्द यहाँ धर्म के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है, क्योंकि धर्म ही आत्मा को वास्तविक सुख शान्ति, संतोष, प्रसन्नता प्राप्त करा सकता है, वही मोक्ष में सम्यक् प्रकार से जीव को ले जाकर रख सकता है।
वे अन्यतीथिक धर्म के तत्त्वज्ञान से क्यों दूर हैं ? इसके समाधानार्थ शास्त्रकार द्वारा अगली छह गाथाएँ प्रस्तुत की जाती हैं
मूल पाठ ते अ बीयोदगं चेव, तमुद्दिस्सा य जं कडं । भोच्चा झाणं झियायंति, अखेयन्ना असमाहिया ॥२६।। जहा ढंका य कंका य, कुलला मग्गुका सिही । मच्छेसणं झियायंति, झाणं ते कलुसाधर्म ॥२७॥ एवं तु समणा एगे, मिच्छदिट्ठी अणारिया । विसएसणं झियायंति, कंका वा कलुसाहमा ॥२८॥ सुद्धं मग्गं विराहित्ता, इहमेगे उ दुम्मई उम्मग्गगता दुक्खं, घायमेसंति तं तहा ॥२६॥
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